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श्री मार्गाध्ययनं . छाया - आनुपूर्व्या महाघोरं, काश्यपेन प्रवेदितम् ।
यमादायेतः पूर्व समुद्रं व्यवहारिणः ॥ अनुवाद - भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित-परिज्ञापित मार्ग, मैं अनुपूर्वी पूर्वक-क्रमशः बतलाता हूँ। उसे सुनो । जैसे व्यवहारी-सामुद्रिक व्यापारी या सार्थवाह समुद्र को पार कर जाते हैं उसी प्रकार इस मार्ग का आश्रय लेकर अनेक जीवों ने संसार सागर को पार किया है।
टीका - यथाऽहम् 'अनुपूर्वेण' अनुपरिपाट्या कथयामि तथा शृणुत, यदिवा यथा चानुपूर्व्या सामग्या वा मार्गोऽवाप्यते तच्छृणुत, तद्यथा-'पढमिल्लुगाण उदए' इत्यादि तावद्यावत् "बारसविहे कसाए खविए उवसामिए व जोगेहिं । लब्भइ चरित्तलंभो"- छाया - प्राथमिकानामुदये-द्वादशविधेषु कषायेषु क्षपितेषूपशमितेषु वा योगैः। लभते चारित्रलाभं ॥ इत्यादि, तथा "चत्तारि परमंगाणो'त्यादि-चत्वारि परमाङ्गानि- । किभूतं मार्ग? तमेव विशिनष्टि-कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्यवसेयत्वात् 'महाघोरं' महाभयानकं 'काश्यपो' महावीर वर्धमान स्वामी तेन 'प्रवेदितं' प्रणीतं मार्ग कथयिष्यामीति, अनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह, यं शुद्धं मार्गम् 'उपादाय' गृहीत्वा 'इत' इति सन्मार्गोपादानात् 'पूर्वम्' आदावेवानुष्ठितत्वाहुस्तरं संसारं महापुरुषास्तरन्ति, अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह-व्यवहारः-पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां ते व्यवहारिण-सांयात्रिकाः, यथा ते विशिष्टलाभार्थिनः किञ्चिन्नगरं यियासवो यानपात्रेण दुस्तरमपिसमुद्रं तरन्ति एवं साधवोऽप्यात्यन्तिकैकान्तिकाबाधसुखैषिणःसम्यग्दर्शनादिना मार्गेण मोक्षं जिनभिषवो दुस्तरं भवौघं तरन्तीति ।५।
टीकार्थ - मैं अनुपरिपाटि-अनुक्रमपूर्वक या क्रमशः जैसा बतलाता हूँ उसे श्रवण करो । चार कषाय जब उदित होते हैं तब जीव सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करता । अतः बारह प्रकार के कषायों के क्षय या उपशय करने पर जीव को चारित्र का लाभ होता है । मनुष्य जन्म, धर्म श्रवण, श्रद्धा तथा संयम में पराक्रम-ये चार बातें जब प्राप्त होती हैं तभी मोक्ष प्राप्त होता है । प्रश्न उपस्थित करते हुए कहते हैं वह मार्ग कौनसा है ? प्रश्न का उत्तर बतलाते हुए कहते हैं कि जैसे कायर पुरुषों के लिये संग्राम भूमि में प्रवेश करना बहुत कठिन है-उसके लिये अत्यन्त भयप्रद है, उसी प्रकार हीन आत्म बल युक्त पुरुषों के लिये यह मार्ग अत्यन्त भयानक है । भगवान महावीर ने इसका निरूपण किया है । वह मैं तुमको बतलाता हूँ। इससे यह संकेतित है कि मैं अपनी बुद्धि या कल्पना से नहीं कहता हूँ । जिसे मैं बतलाने जा रहा हूँ उस शुद्ध मार्ग को अंगीकार कर अनेक महापुरुषों ने इस दुश्तर संसार सागर को पार किया । इस संबंध में एक दृष्टान्त कहते हैं । माल की खरीद-बिक्री को व्यवहार कहा जाता है । जो व्यवहार करते हैं उन्हें व्यवहारी कहा जाता है । वे सांयात्रिकसार्थवाह विशिष्ट-अत्यधिक लाभ पाने हेतु किसी नगर को जाते हुए जैसे यानपात्र-जहाज पर सवार होकर दुस्तर समुद्र को पार कर जाते हैं । उसी तरह आत्यन्तिक, एकान्तिक तथा बाधा रहित सच्चे सुख की अभिलाषा रखने वाले साधु सम्यक्दर्शन आदि युक्त मार्ग द्वारा मोक्ष जाने की अभिलाषा लिये हुए दुश्तर संसार सागर को पार कर जाते हैं।
अणागया । सुणेह मे ॥६॥
अतरिसु तरंतेगे, तरिस्संति तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं छाया - अतार्दास्तरन्त्येके तरिष्यन्त्य नागताः । तं श्रुत्वा प्रतिवक्ष्यामि, जन्तवस्तं शृणुत मे ।
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