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धर्म अध्ययनं या पीडोत्पादक तो नहीं है । यह सोचने के बाद ही वह बोले । इसलिए कहा है कि साधु पहले बुद्धि द्वारा प्रेक्षण करे, विचार पूर्वक समझे, तत्पश्चात् वह वचन बोले ।।
तत्थिमा तइया भासा जं वदित्ताऽणतप्पती । जं छन्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा णियंठिया ॥२६॥ छाया - तत्रेयं तृतीया भाषा यामुक्त्वाऽनुतप्यते ।
यत् छन्नं त्तन्नवक्तव्यम् एसाऽऽज्ञा नैत्थिकी ॥ अनुवाद - भाषा के चार भेद माने गए हैं । उनमें असत्य से मिश्रित भाषा तीसरा भेद है । साधु वैसी भाषा न बोले । वह ऐसा भी वचन न बोले जिसके बोलने से उसे अनुताप-पश्चाताप करना पड़े । जिसे सब छन्न-गुप्त रखना चाहते हैं, छिपाते हैं साधु वैसा भी न बोले । निर्ग्रन्थ भगवान महावीर की यह आज्ञा है ।
टीका - अपिच-सत्या असत्यासत्यामृषा असत्यामृषेत्येवरुपासुचतसृषु भाषासुमध्ये तत्रेयंसत्यामृषेत्येदभिधाना तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरुपा, तद्यथा-दश द्वारका अस्मिन्नगरे जाता मृता वा, तदत्र न्यूनाधिक सम्भवेसति सङ्घयाया व्यभिचारात्सत्या मृषात्वमिति,यां चैवंरूपां भाषामुदित्वाअनु-पश्चाद्भाषणाजन्मान्तरे वा तजनितेन दोषेण 'तप्यते' पीड्यते कलेश भाग्भवति, यदि वा-अनुतप्यते किं ममैवम्भूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते, ततश्चेदमुक्तं भवति-मिश्रापि भाषा दोषाय किं पुनरसत्या द्वितीया भाषा समस्तार्थ विसंवादिनी?, तथा प्रथमापि भाषा सत्या या प्राण्युपतापेन दोषानुषङ्गिणी सा न वाच्या, चतुर्थ्यप्य सत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तत्येति, सत्याया अपि दोषानुषङ्गित्वमधिकृत्याह-यद्धचः 'छन्नति' क्षणु हिंसायां हिंसा प्रधानं, तंद्यथावध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदाराः दम्यंत्तां गोरथका इत्यादि, यदि वा-'छन्नन्ति' प्रच्छन्नं यल्लोकैरपि यत्नतः प्रच्छाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यमिति, 'एषाऽऽज्ञा' अयमुपदेशो निग्रन्थो-भगवांस्तस्येति ॥२६॥
टीकार्थ - भाषा के चार भेद माने गए हैं, (१) सत्या, (२) असत्या, (३) सत्यामृषा (४) असत्यामृषा। इनमें सत्यामृषा तीसरी भाषा है । वह कुछ सत्य होती है, और कुछ असत्य होती है । जैसे किसी ने कहा कि इस गाँव में दस बालक उत्पन्न हुए हैं, या मरे हैं । यहाँ दस से न्यून या अधिक बालकों का उत्पन्न होना या मरना भी संभावित है । इसलिए संख्या में व्यभिचार दोष या अन्तर हो के कारण यह वचन सत्य एवं असत्य दोनों ही है । जिस वचन को कहकर जीव जन्मान्तर में तज्जनित दोष के कारण परितप्त दोता है, पीड़ित होता है, क्लेश पाता है, पश्चाताप करता है कि मैंने क्यों ऐसा भाषण किया, मैंने ऐसा क्यों बोला । साधु ऐसा वचन भी न बोले । कहने का अभिप्राय यह है कि असत्य से मिश्रित तीसरी भाषा भी दोषोत्पादक है । फिर समस्त अर्थ की विसंवादिनी-विपरीत बताने वाली दूसरी असत्य भाषा का तो कहना ही क्या ? यद्यपि पहली भाषा सर्वथा सत्य है, किन्तु यदि उससे प्राणियों को उपताप होता है-पीड़ा उत्पन्न होती है, तो वह दोषानुषङ्गिणी है -दोष से अनुषक्त या प्रसक्त है । साधु को वह नहीं बोलनी चाहिए । चौथी भाषा न सत्य है, और न असत्य है । वह भी विद्वानों द्वारा अनाचीर्ण-असेवित है । विद्वान उसका प्रयोग नहीं करते । इसलिए नहीं बोलनी चाहिए। कहीं कहीं सत्य भाषा भी दोष उत्पन्न करती है । सत्रकार यह बतलाए हए कहते हैं-जैसे इसका वध करो यह चोर है, क्यारियों को काटो, रथ के बैलों का दमन करो, नियन्त्रण करो, इत्यादि ये सत्य परक तो हैं,
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