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श्री समाध्ययनं
अनुवाद आप्तगामी - सर्वज्ञ प्ररूपित पथ पर गमनशील साधु असत्य भाषण न करे । असत्य का सर्वथा परित्याग, सम्पूर्ण समाधि या मोक्षकहा गया है। इसी प्रकार वह असत्यादि का न स्वयं सेवन करे, न दूसरे द्वारा करवाये तथा न वैसा करने वाले का अनुमोदन ही करे ।
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टीका तथा आप्तो - मोक्षमार्गस्तगामी- तद्रमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्त दुपदिष्टमार्गगामी 'मुनिः' साधुः 'मृषावादम्' अनृतमयथार्थं न ब्रूयात् सत्यमपि प्राण्युपघातकमिति, 'एतदेव' मृषावादवर्जनं 'कृत्स्नं' सम्पूर्ण भाव समाधि निर्वाणं चाहुः सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादिजनिता: शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिकानात्यन्तिकत्वेन दुःख प्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । तदेवं मृषावादमेन्येषां वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुर्यान्नाप्परेण कारयेत्तथा कुर्वन्तमप्यपरं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानुमन्येत इति ॥२२॥
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टीकार्थ - मोक्ष के मार्ग को आप्त कहा जाता है। उस पर चलने वाला आप्तगामी या आत्महितगामी कहा जाता है । अथवा जिसके राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि दोष नष्ट हो गये हैं, उसे आप्त कहा जाता है। वह सर्वज्ञ है । उन द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने वाला पुरुष आप्तगामी कहा जाता है। वैसा आप्तगामी साधु मृषावाद-असत्य या अयथा जो जैसा नहीं हो वैसा भाषण न करे । सत्य होते हुए भी जिस वचन द्वारा प्राणियों का उपघात- बध, पीडा आदि हो वैसा सत्य भी न बोले । असत्य का वर्जन ही समग्रभाव समाधि और मोक्ष है - ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । स्नान, भोजन आदि तथा शब्द आदि अनुकूल एवं प्रिय विषयों के सेवन से जो सांसारिक- भौतिक समाधि उत्पन्न होती है वह अनेकान्तिक- अनिश्चित है तथा अनात्यन्तिक- आत्यन्तिक नही है - सम्पूर्णतायुक्त नहीं है, वह मात्र दुःख प्रतिकारात्मक है । इसलिये असम्पूर्ण है । अतः साधु असत्य भाषण अथवा अन्य व्रतों के अतिचार का विरुद्धाचरण का स्वयं सेवन न करे, औरों से भी वैसा न कराये तथा सेवन करते हुए व्यक्ति का मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्म द्वारा अनुमोदन - समर्थन न करे ।
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सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा, अमुच्छिए णय अज्झोववन्ने । धितिमं विमुक्के ण पूयणट्ठी, न सिलोयगामी य परिव्वज्जा ॥२३॥
छाया शुद्धेस्याज्जाते न दूषयेत्, अमूर्च्छितो न चाध्युपपन्नः ।
धृतिमान् विमुक्तो न च श्लोकगामी च परिव्रजेत् ॥
अनुवाद शुद्ध - उद्गम आदि दोष रहित भोजन प्राप्त होने पर साधु राग आदि द्वारा अपने चारित्र को दूषित न करे। उत्तम भोजन में लोलुप न बने और न उसकी अभिलाषा ही करे । साधु धृतिमान- धैर्यशील तथा विमुक्त-परिग्रह से मुक्त रहे । वह अपनी पूजा सत्कार तथा यश की कामना न | अपने प्रव्रजित जीवन का - शुद्ध संयम का पालन करे ।
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टीका
उत्तरगुणानधिकृत्याह-उद्गमोत्पादनैषाणाभिः 'शुद्धे' निर्दोषे 'स्यात' कदाचित् 'जाते' प्राप्ते पिण्डे सति साधू रागद्वेषाभ्यां न दूषयेत्, उक्तं च - "बायालीसे सणसंकडंमि गहणंमि जीव ! नहु छलिओ । इहिं जह न छलिञ्जसि भुंजंतो रागदोसेहिं ॥१॥ " छाया - द्विचत्वारिशदेषणादोषसंकटे गहने जीव ! नैव छलितः । इदानीं यदि न छल्यसे भुञ्जन् रागद्वेषाभ्या ( तदासफलं तत् ) ॥१॥
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