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श्री समाध्ययनं टीकार्थ - द्रव्यजात-विविध प्रकार के धन वैभव का तथा गाय भैंस आदि पशुधन का परित्याग कर दो । उनमें ममत्त्व-ये मेरे हैं ऐसा भाव मत रखो । माता पिता आदि जो पूर्व परिचित या सम्बद्ध है तथा श्वसुर आदि पश्चात् परिचित या संबद्ध है-ये पारिवारिक जन तथा वे बालमित्र-जो शैशव में एक साथ मिट्टी में खेले हों, कुछ भी उपकार नहीं कर सकते किन्तु स्थिति यह है कि मनुष्य धन पशु पारिवारिक जन तथा मित्रवृन्द के लिये पुनः पुनः रोता है । हाय माता ! हाय पिता इत्यादि प्रलाप करता हुआ उनके लिये शोकाकुल होताहै। उनके लिये धनार्जन करता हुआ मोहमूढ़ बना रहता है । कण्डरीक के समान सुरुप तथा मम्मण वणिक की तरह धन सम्पन्न एवं तिलक श्रेष्ठी की तरह धान्यादि समृद्धियुक्त पुरुष भी समाधि के बिना मोहग्रस्त बना रहता है अत्यन्त कष्टपूर्वक अपर प्राणियों के उपमर्दन-हिंसादि द्वारा जो उसने धनार्जन किया उसे उसके जीते जी अथवा मृत्यु प्राप्त हो जाने पर अन्य लोग हरण कर लेते हैं । उसको केवल कष्ट ही मिलता है तथा कर्मबंध ही होता है । मनुष्य यह जानकर पाप पूर्ण कार्यों का परित्याग करे तथा तपश्चरण करे ।
सीहं जहा खुडुमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा । एवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवजएज्जा ॥२०॥ छाया - सिंह यथा क्षुद्रमृगाश्चरन्तो दूरे चरंति परिशङ्कमानाः ।
एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्मं दूरेण पापं परिवर्जयेत् ॥ अनुवाद - जैसे हिरण आदि क्षुद्र प्राणी-छोटे छोटे जीव सिंह की शंका से दूर ही विचरण करते हैं उसी प्रकार मेधावी-प्रज्ञाशील पुरुष धर्म की समीक्षा कर पाप को दूर से परिवर्जित करे ।
टीका- तपश्चरणोपाय मधिकृत्याह-यथा क्षुद्रमृगा' क्षुद्राटव्यपशवो हरिणजात्याद्याः चरन्तः' अटव्यामटन्तः सर्वतो विभ्यतः परिशंकमानाः सिंह व्याघ्रं वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहत्य ‘चरन्ति' 'विहरन्ति, एवं 'मेधावी' मर्यादावान्, तुर्विशेषणे, सुतरां धर्मं 'समीक्ष्य' पर्यालोच्य ‘पापं' कर्म असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाक्कायकर्मभिः परिहत्य परि-समन्ताद्ब्रजेत् संयमानुष्ठानी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापं-पापहेतु त्वात्सावद्यानुष्ठानं सिंह मिव मृगः स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत-परित्यजेदिति ॥२०॥ अपिच.
टीकार्थ - सूत्रकार तपश्चरण के उपाय के सम्बन्ध में कहते हैं - जैसे मृग आदि छोटे-छोटे वन के जन्तु वहां विचरते हुए सिंह की शंका से भयभीत होते हुए आत्मोपद्रवकारी-अपने को नुकसान पहुंचाने वाले शेर या बाघ को दूर से ही छोड़कर अर्थात् जहाँ उनके होने की आशंका होती है उस स्थान को परिवर्जित कर दूर ही घूमते हैं उसी प्रकार मर्यादावान-संयम की मर्यादा में अवस्थित मेधावी मुनि धर्म का पर्यालोचन कर मन, वचन एवं शरीर से पाप का दूर से ही वर्जन कर संयम एवं तपश्चरण में लीन रहे अथवा जैसे अपना हित चाहने वाला मृग सिंह को दूर ही छोड़ देता है - उसके स्थान का दूर से ही परित्याग करता है उसी प्रकार आत्म कल्याण चाहने वाला पुरुष पाप का हेतु होने के कारण सावध कार्य का दूर से ही परित्याग करे।
संबुज्झमाणे उ णरे मतीयं, पावाउ अप्याण निवट्टएजा । हिंसप्पसूयाइं दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥२१॥
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