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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् वह ममत्त्ववान् प्राणी अमुक वस्तु मेरी है, मैं उसका स्वामी हूँ । इस प्रकार आसक्त होता हुआ दुस्साहस पूर्णअनुचित साहसयुक्त कार्य करता है । इस संबंध में एक दृष्टान्त है - कोई वणिक अत्यन्त कष्ट सहकर बहुमूल्य रत्न अर्जित कर उज्जैनी नगरी के बाहर ठहरा । वह रात भर चिन्तन करता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे रत्नों को राजा, चोर आदि तथा पारिवारिक जन ही ले ले । इसलिये इन रत्नों को मैं इस प्रकार सुरक्षित रखू, यों सोचते-सोचते समग्र रात्रि व्यतीत हो गई। उसने यह नहीं जाना कि रात बीत रही है । बाद में दिन मेंदिन उग जाने पर अपने रत्नों को किसी गुप्त स्थान पर छिपाने लगा । राजपुरुषों ने उसे देख लिया और उससे रत्न हथिया लिये । उसी प्रकार एक व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ होकर-मैं क्या करूं? यह सोचता सोचता अपनी आयु क्षय को नहीं जानता । वह परिग्रह तथा आरंभ में प्रवृत्त होता हुआ दुस्साहस-पाप कार्य करता है । वह काम भोग में तृषित-लुब्ध रहता हुआ रात-दिन धन की चाह में संलग्न परितप्यमान मम्मण वणिक की तरह आर्त ध्यान करता है। शरीर को कष्ट देता है। कहा है- अज्ञ जीव अपने को अजर-अमर मानता हआमैं न कभी वृद्ध हूंगा और न कभी मरूंगा । यह सोचता हुआ धन की कामना से कष्ट भोगता है । वह यह सोचता है कि मेरा जीवन तथा धन शाश्वत रहेगा । यों आर्त ध्यान से उपहत होता हुआ वह सोचता है कि सार्थ-व्यापारियों का संघ या समुदाय कब निकलेगा - यहाँ से कब निकलेगा । इसमें क्या-क्या माल भरा है। यह कितनी दूर जायेगा । वह अपने धन की सुरक्षा हेतु कभी पर्वत आदि ऊंचे स्थानों को खोदता है, कभी भूमि को खोदता है, कभी और किसी स्थान को देखता है । रात में सो तक नहीं पाता । दिन में भी सशंक रहता है । इस प्रकार चैतासिक संक्लेश-पीड़ा से मूढ़ बना हुआ वह पुरुष अजरामर नामक वणिक की ज्यों अपने को अजर-अमर मानता हुआ शुभ अध्यवसाय-पवित्र परिणामों से रहित होकर रात दिन हिंसा आदि आरम्भ में प्रवृत्त रहता है ।
जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता । . लालप्पती सेऽवि य एइ मोहं, अन्ने जणा तंसि हरंति वित्तं ॥१९॥ छाया - जहाहि वितञ्च पयूँश्च सर्वान्, ये बांधवा ये च प्रियाश्च मित्राणि ।
लालप्यते सोऽपि चैति मोहमन्ये जनास्तस्य हरन्ति वित्तम ॥ अनुवाद - वित्त-धन सम्पत्ति तथा पशु आदि समस्त पदार्थों का परित्याग करो । पारिवारिक जन तथा प्रीतियुक्त मित्रगण कुछ भी उपकार नहीं करते । तो भी मनुष्य इनके लिये विलाप करता है-रोता है तथा मोहसक्त होता है । जब वह प्राणी मृत्युगामी हो जाता है तब दूसरे लोग उसके अर्जित धन का हरण कर लेते है-उस पर अधिकार कर लेते हैं ।
टीका - किञ्चान्यत् - 'वित्तं' द्रव्यजातं तथा 'पशवो' गोमहिष्यादयस्यान् सर्वान् 'जहाहि' परित्यजतेषुममत्वं मा कृथाः, ये बान्धवा' मातापित्रादयः श्वसुरादयाश्च पूर्वापरसंस्तुता ये च प्रिया मित्राणि' सहपांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्रादयो न किञ्चित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽति च वित्तपशुबांधव मित्रार्थी अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते, तद्यथा-हे मात ! हे पितरित्येवं तदर्थं शोकाकुलः प्रलपति, तदर्जनपरश्च मोहमुपैति, रूपवानपि कण्डरीकवत् धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवानपि तिलक श्रेष्ठिवद् इत्येवमसावप्यसमाधिमान् मुह्यते (ति), यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्दैनोपार्जित्तं वित्तं तदन्ये जनाः 'से' तस्यापहरन्ति जीवत एव मृतस्य वा तस्य च क्लेश एव केवलं पापबंध श्चेत्येवं मत्वा पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति ॥१९॥
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