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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् तत्रापि रागस्य प्राधान्यख्यापनायाह-नमूर्छितोऽमूर्छितः-सकृदपि शोभनाहारलाभे सति गृद्धिमकुर्वन्नाहारयति, तथा अनध्युपपन्नस्तमेवाहारं पौन:पुन्येनानभिलषमाणः केवलंसंयमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत्, प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसन्निधावभिलाषातिरेको जायत इत्यतोऽमूर्छितोऽनध्युपपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम्, उक्तं च
भुत्तभोगो पुरा जोऽवि, गीयत्थोऽवि व भाविओ । संतेसाहारमाईसु, सोऽवि खिप्पं तु खुब्भइ ॥१॥
छाया - भुक्तभोगः पुरायोपि गीतार्थोऽपि च भावितः सत्स्वाहारादिषु सोऽपि क्षिप्रमेव क्षुभ्यति ॥१॥ तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान् तथा सबाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन विमुक्तः तथा पूजनं वस्त्रपात्रादिना तेनार्थः पूजनार्थः स विद्यते यस्यासौ पूजनार्थी तदेवंभूतो न भवेत्, तथा श्लोक:-श्लाघा कीर्ति स्तद्गामी न तदभिलाषुकः परिव्रजेदिति, कीर्त्यर्थी न काञ्चन क्रियां कुर्यादित्यर्थः ॥२३॥
___टीकार्थ – सूत्रकार अब उत्तर गुणों को उदिष्ट कर कहते हैं - यदि साधु को उद्गम, उत्पादन तथा एषणा इन दोषों से वर्जित-दोष रहित भोजन प्राप्त हो तो वह राग द्वेष द्वारा अपने चारित्र को दषित न बनावे । कहा गया है हे प्राणी ! बयालीस दोष रूप गहन संकट में तम नहीं छले गये - तमने धोखा नहीं खाया किन्तु अब यदि तुम भोजन करते समय नहीं छले जाओगे, धोखा नहीं खाओगे तब तुम सफल हो । वहां भी राग तथा द्वेष के बीच राग मुख्य है, यह निरूपित करने हेतु सूत्रकार बतलाते हैं - साधु शोभन-उत्तम स्वादिष्वट भोजन मिलने पर उसमें जरा भी मूर्छित-आसक्त न रहता हुआ आहार करे । पुनः पुनः वही भोजन मिले ऐसी अभिलाषा न करे किन्तु संयम यात्रा के पालन हेत ही वह आहार का सेवन करे । विशिष्ट श्रेष्ठ आहार मिलने पर प्रायः विज्ञ पुरुष के मन में भी तीव्र अभिलाषा जाग उठती है । इसलिये दो बार उसका प्रतिषेध किया गया है । कहा है जो भुक्त भोगी है-जिसने पहले भोग भोगे हैं, गीतार्थ है-शास्त्रों का गहन अध्येता है तथा सदा आत्मानुभावित है, वह पुरुष भी उत्तम भोजन मिलने पर शीघ्र ही उसका आकांक्षी हो जाता है । साधु संयम में धृतिमान-धैर्यशील-सुस्थिर रहे । वह बाहरी तथा भीतरी परिग्रह से मुक्त रहे । वह वस्त्र पात्र आदि द्वारा अपनी पूजा, सत्कार का अभिलाषी न बने एवं वह प्रशंसा और यशस्विता का इच्छुक भी न बने । वही कीर्ति-बढ़ाई हेतु कोई क्रिया प्रयत्न न करे ।
निक्खम्म गेहा उ निरावकंखी, कायं विउसेज नियाण छिन्ने । णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेज भिक्खू वलया विमुक्के ॥२४॥त्तिबेमि ॥ छाया - निष्क्रम्य गेहात्तु निरवकांक्षी कायं व्युत्सृजेच्छिन्ननिदानः ।
___नो जीवितं नो मरणमवकाङ्क्षी, चरेभिक्षुर्वलयाद् विमुक्तः ॥इति ब्रवीमि॥
अनुवाद - गृह से निष्क्रान्त-घर छोड़कर दीक्षित साधु अपने जीवन से निरवकांक्षी-आकांक्षा रहित निरपेक्ष होकर अपने शरीर का व्युत्सर्जन करे । उस पर मोह-ममत्व न रखे । वह अपने तपश्चरण के फल की कामना भी न करे । इस प्रकार वह जीवन तथा मृत्यु की आकांक्षा से विमुक्त होकर सांसारिक चक्र से पृथक् रहता हुआ संयम के अनुष्ठान में उद्यमशील रहे ।
टीका - अध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-गेहान्निःसृत्य 'निष्कम्य च' प्रव्रजितोऽपि भूत्वा जीवितेऽपि निराकांक्षी 'कार्य'शरीरं व्युत्सृज्य निष्प्रतिकर्मतया चिकित्सादिकमकुर्वन् छिन्ननिदानो भवेत्, तथा न जीवितं नापि मरणमभिकाङ्क्षत्
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