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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्रणीत सांख्य सिद्धान्तानुसार आत्मा अकर्ता है । वह निर्गुण-गुणरहित है एवं भोक्ता-कर्मों के फल भोगने वाला है । यहां 'तु' शब्द विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वह आत्मा की विशेषता का सूचक है । सांख्यवादियों का ऐसा प्रतिपादन है कि अमूर्तत्व एवं व्यापित्व के कारण आत्मा अक्रिय है । ऐसा सिद्ध होता है । अक्रियात्मवादी सांख्य के सिद्धान्तानुसार क्रियारहित आत्मा में बंध और मोक्ष सिद्ध नहीं होते । किन्तु किसी के ऐसा पूछने पर वे अपने अक्रियावादी सिद्धान्त में भी बंध और मोक्ष होते हैं ऐसा प्रतिपादित करते हैं । सांख्यावादी पचन पाचन-भोजन पकाना, दूसरे द्वारा पकवाना, स्नान हेतु जल में अवगाहन करना-ये सब करते हैं । इस प्रकार वे आरम्भ-सावद्य कार्य में अध्युपन्न-लिप्त रहते हैं । मोक्ष के एकमात्र हेतु भूत श्रुतचारित्रमूलक धर्म को नहीं जानते । वे कुमार्ग को ग्रहण किये रहतेहैं । उन्हें धर्म का सम्यक् ज्ञान नहीं है ।
पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीयं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव्व देहं, पवड्ढती वेरमसंजतस्स ॥१७॥ छाया - पृथक् छंदा इह मानवास्तु, क्रियाऽक्रियं पृथग्वादम् ।
जातस्य बालस्य प्रकृत्य देहं, प्रवर्धते वैरमसंयतस्य ॥ अनुवाद – मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकार की अभिरूचि या पसंद होती है । अतएव कई क्रियावाद और कई अक्रियावाद में विश्वास करते हैं । कई ऐसे हैं जो सद्य जात बालक की देह को काटकर सुखानुभव करते हैं । असंयत पुरुष अपने कृत्यों द्वारा प्राणियों के साथ वैर की वृद्धि करता है।
टीका - पृथक् नाना छंद:-अभिप्रायो येषां ते पृथक्छंदा 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'मानवा' मनुष्याः तुरवधारणे, तमेव नानाभिप्रायमाह-क्रियाऽक्रिययोः पृथक्त्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः, तद्यथा
"क्रियेव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत ॥१॥"
इत्येवं क्रियैवफलदायित्वेनाभ्युपगता, क्रियावादमाश्रिताः एवमेतद्विपर्ययेणाक्रिया वादमाश्रिताः, एतयोश्चोत्तरत्र स्वरूपं न्यक्षेण वक्ष्यते, ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोक्ष हेतुं धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इंद्रियवशगा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति, तद्यथा-'जातस्य' उत्पन्नस्य 'बालस्य' अज्ञस्य सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो 'देहं' शरीरं 'पकुव्व' त्ति खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति, तदेवं परापघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि बैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षेण वर्धते, पाठान्तरं वा-जायाएँ बालस्स पगब्भणाये-'बालस्य' अज्ञस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस्य या जाता 'प्रगल्भता' धाष्टर्य तया वैरमेव प्रवर्धत इति सम्बन्धः ॥१७॥
टीकार्थ – यह मनुष्य लोक ऐसा है, जिसमें भिन्न-भिन्न मनुष्यों की अपनी भिन्न-भिन्न रुचियां होती है । यहां 'तु' शब्द अवधारणा के अर्थ में आया है । सूत्रकार भिन्न भिन्न रुचियों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-क्रिया एवं अक्रिया पृथक् पृथक् हैं-भिन्न भिन्न है । अतः कई क्रियावाद में विश्वास करते हैं तथा कई अक्रियावाद में । क्रियावादियों का कथन है कि मनुष्यों के लिये क्रिया ही फलप्रद होती है क्योंकि स्त्री और खाने योग्य पदार्थों को जानने मात्र से क्या पुरुष उनका सुख अनुभव कर सकता है । इस प्रकार क्रिया ही फलप्रदा है । ऐसा मानते हुए वे क्रियावाद पर आश्रित हैं-टिके हुए हैं । इससे प्रतिकूल अक्रियावादी क्रिया
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