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श्री समाध्ययनं टीका - किञ्चान्यत-वाचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तो-मौनव्रती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धमाषी वेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धां 'लेश्यां' तेजस्यादिकां 'समाहृत्य' उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहृत्य परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने 'व्रजेत् ' गच्छे दिति, किञ्चान्यत् -गृहम्-आवसथं स्वतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थत्वादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतबिलनिवासित्वात्संस्कारं न कुर्यात्, अन्यदपि गृहस्थकर्त्तव्यं परिजिहीर्षुराह-प्रजायन्त इति प्रजास्तासु-तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजह्यात्, एतदुक्तं भवतिप्रव्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रिया कुर्वन् कारयञ्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते, यदिवा-प्रजाः-स्त्रियस्तासु ताभिर्वा य सम्मिश्रीभावस्तमविकलसंयमार्थी 'प्रजह्यात्' परित्यजेदिति ॥१५॥
टीकार्थ - जो साधु वाणी से गुप्त रहता है-मौनव्रती होता है या भलीभांति पर्यालोना कर, चिन्तन विमर्श कर धर्म विषयक बात कहता है. वह भावसमाधि को प्राप्त है. वह तेजस आदि शद्ध लेश्याएं आत्मसात
| आदि अशुद्ध लेश्याओं का अपहार-परिहार या त्याग कर संयम का सर्वथा आचरण करे । साधु घर का छादन न करे तथा न दूसरे द्वारा ही वैसा करवावे । जैसे सांप अपने लिये बिल नहीं बनाता किन्तु दूसरे द्वारा बनाये बिल में निवास करता है उसी प्रकार साधु दूसरे के घर में निवास करता हुआ सज्जा सफाई आदि न करे । शास्त्रकार गृहस्थ के अन्य कार्यों का परिहार करने हेतु प्रतिपादित करते हैं । जो बार बार जन्मते हैं, उत्पन्न होते हैं, उन्हें प्रजा कहा जाता है । जिस कार्य से उनके साथ साधु का सम्मिश्र भाव-मेल जोल हो, उसे वह न करे । अथवा स्त्रियों को प्रजा कहा जाता है । अविच्छिन्न रूप में संयम का पालन करने वाला साधु उनके साथ मेल मिलाप का सम्पूर्णतः परिवर्जन करे ।
जे केइ लोगंमि उ अकिरिय आया, अन्नेण पुट्ठा धुयमादिसति । आरंभ सत्ता गढिता य लोए, धम्मं ण जाणंति विमुक्खहेउं ॥१६॥ छाया - ये केऽपि लोकेत्वक्रियात्मानोऽन्येन पृष्टाः धुतमादिशन्ति ।
आरंभसक्ताः गृद्धाश्च लोके, धर्मं न जानन्ति विमोक्ष हेतुम् ॥ अनुवाद - इस लोक में जो यह मानते हैं कि आत्मा अक्रिय है-क्रियारहित है तथा किसी अन्य द्वारा प्रश्न किये जाने पर वे मोक्ष का आदेश-विधान करते हैं, अस्तित्व स्वीकार करते हैं । वे हिंसा आदि आरम्भ समारम्भ में संसक्त है, भोगों में लिप्त है । मोक्ष जो धर्म का कारण है, उसे वे नहीं जानते ।
टीका - अपिच-ये के चन अस्मिन् लोके अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मान:साङ्ख्याः, तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रियः पठ्यते, तथा चोक्तम्-'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने" इति तु शब्दो विशषणे, स चैतद्विशिनष्टि -अमूर्तत्वव्यापित्वाभ्यामात्मनोऽक्रि यत्वमेव बुध्यते, ते चाक्रियात्मवादिनोऽन्येनाक्रियत्वे सति बन्धमोक्षौ न घटेते इत्यभिप्रायवता मोक्षसद्भावं पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाद दर्शनेऽपि 'धूतं' मोक्षं तदभावम् (च) 'आदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति, ते तु पचनपाचनादिके स्नानार्थं जलावगाहनरूपे वा 'आरम्भे' सावद्ये 'सक्ता' अध्युपपन्ना गृद्धास्तु लोके मोक्षैकहेतुभूतं 'धर्मं श्रुतचारित्राख्यं' 'न जानन्ति' कुमार्गग्राहिणो न सम्यगवगच्छन्तीति ॥१६॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ – इस लोक में सांख्य आदि दर्शन वादी आत्मा को अक्रिय-क्रियाशून्य स्वीकार करते हैं। वे आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं । इसलिये उसे निष्क्रिय बतलाते हैं । कहा है-कपिलदर्शन में कपिल द्वारा
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