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श्री समाध्ययनं
" एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संयोगलक्खणा ॥१॥" छाया - एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शन संयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोग लक्षणाः ॥ १ ॥
इत्यादि कामेकत्वभावनां भावयेद् एवमनयैकत्वभावनया प्रकर्षेण मोक्षः प्रमोक्षो - विप्रमुक्तसङ्गता, न 'मृषा' अलोकमेतद्भवतीत्येवं पश्य, एष एवैकत्वभावनाभिप्रायः प्रमोक्षोवर्तते, अमृषारूपः - सत्यश्चायमेव । तथा 'वरोऽपि ' प्रधानोऽप्पयमेव भावसमाधिर्वा, यदिवा यः 'तपस्वी' तपोनिष्टप्तदेहोऽक्रोधनः, उपलक्षणार्थत्वादस्यामानो निर्मायो निर्लोभः सत्यरतश्च एष एव प्रमोक्ष 'अमृषा' सत्यो 'वरः' प्रधानश्च वर्तत इति ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - साधु एकत्व - असहायत्व की अभिप्रार्थना करे । एकत्वभावना से अनुभावित हो, अन्य की सहायता की कामना न करे क्योंकि जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रुग्णता तथा शोक से आकुल इस जगत में स्वकृत कर्म के फलस्वरूप दुःखों से पीडित होते प्राणी को त्राण देने में, उनसे बचाने में कोई भी समर्थ नहीं है । अतएव कहा गयाहै-ज्ञान, दर्शन समायुक्त मेरी अपनी आत्मा ही शाश्वत है । सभी अवशिष्ट पदार्थ बाह्यभाव हैं, वे संयोग लक्षण हैं, संयोगवश प्राप्त है। यों साधु सदैव एकत्व की भावना भावित करे। इस एकत्व भावना
अनुभावन से प्रमोक्ष-प्रमुक्तता - समस्त आसक्तियों से उन्मुक्ति प्राप्त हो जाती । इसमें जरा भी असत्य नहीं है, ऐसा देखो । विचार करो । एकत्व भावना का अभिप्राय-लक्ष्य मोक्ष है जो सत्य है । यही वर - प्रधान या श्रेष्ठ है । यही भाव समाधि है अथवा जो तपस्वी है जिसका शरीर तप से परितप्त है, जो क्रोध विवर्जित है, उपलक्षण से क्रोध के साथ साथ मान माया और लोभ से रहित है, सत्य में अभिरत है, वही पुरुष प्रमुक्त है । सचमुच सबसे श्रेष्ठ या प्रधान है ।
इत्थी या आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुव्व माणे । उच्चावसु विससु ताई, निस्संसयं भिक्खू समाहिपत्ते ॥१३॥
छाया
स्त्रीषुचारतमैथुनस्तु
परिग्रहञ्चैवाकुर्वाणः 1 उच्चावचेषु विषयेषु त्रायी, निःसंशयं भिक्षुः समाधिं प्राप्तः ॥
अनुवाद जो पुरुष स्त्रियों के साथ अब्रह्मचर्य सेवन नहीं करता, परिग्रह नहीं रखता, उच्चावचऊंचे नीचे तरह तरह के सुख भोगों में अलिप्त रहता है, जीवों का त्राण- रक्षण करता है, हिंसा नहीं करता, वह निश्चय ही समाधि को प्राप्त है ।
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टीका दिव्यमानुषतिर्यग्रूपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषयभूतासु यत् " मैथुनम् " अब्रह्म तस्माद आ-समन्तान्नरतः-अरतो निवृत्त इत्यर्थः, तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृतश्च तथा परि-समन्ताद्गृह्यते इति परिग्रहो धनधान्यद्विपद चतुष्पदादिसंग्रह तथा आत्माऽऽत्मीयग्रहस्तं चैवाकुर्वाणः सन्नुच्चावचेषु - नानारूपेषु विषयेषु यदिवोच्चाउत्कृष्टा अवचा-जघन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः 'त्रायी' अपरेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो 'निःसंशयं ' निश्चयेन परमार्थतो 'भिक्षुः' साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधिं प्राप्तो भवति, नापर: कश्चिदिति, उच्चावचेषु वा विषयेषु भाव समाधिं प्राप्तो भिक्षुर्न संश्रयं याति नानारूपान् विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः ॥१३॥
टीकार्थ जो देवांगना, मनुष्यांगना और तिर्यक् स्त्री रूपा -इन तीनों में अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करता, 'तु' शब्द द्वारा संकेतित प्राणातिपात-हिंसादि से निवृत्त रहता है, तथा जो परिग्रह चारों ओर से जो गृहीत होता है - तन्मूलक, धन-धान्य, द्विपद, एवं चतुष्पदों का संग्रह नहीं करता है, उनमें अपना ममत्व स्थापन नहीं
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