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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् करता है तथा भिन्न भिन्न प्रकार के सांसारिक सुख भोगों में लोलुप नहीं होता है, अथवा उच्चावच-उत्कृष्ट जघन्य विषयों में राग द्वेष युक्त नहीं होता है, अन्य प्राणियों का त्राण भूत होता है, वह मूल गुण तथा उत्तर गुण सम्पन्न साधु निश्चय ही भाव समाधि को प्राप्त कर लेता है, जो वैसा नहीं होता, उसे भाव समाधि प्राप्त नहीं होती । उच्चावच विषयों में भाव समाधि प्राप्त साधु विविध प्रकार के विषयों का संश्रय नहीं करता-सेवन नहीं करता ।
अरई रइं च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं ।। उण्हं च दंसं चऽहियासएजा, सुब्भिं व दुब्भिं व तितिक्खएजा ॥१४॥ छाया - अरतिं रतिञ्चाभिभूय भिक्षु स्तृणादिस्पर्श तथा शीतस्पर्शम् ।
उष्णञ्च दंशञ्चाधिसहेत, सुरभिञ्चा दुरभिञ्च तितिक्षयेत् ॥ अनुवाद - साधु संयम में अरति-खिन्नता तथा असंयम में रति-अनुरक्तता का परित्याग कर तृण, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर तथा सुगन्ध, दुर्गन्ध सबको सहन करे ।।
टीका - विषयाननाश्रयन् कथं भावसमाधिप्नुयादित्याह-स भावभिक्षुः परमार्थदर्शी शरीरादौ निस्पृहो मोक्षगमनैकप्रवणश्च या संयमेऽरतिरसंयमे च रतिर्वा तामभिमूयएतदधिसहेत, तद्यथा निष्किञ्चनतया तृणादिकान् स्पर्शानादिग्रहणान्निनोन्नतभूप्रदेशस्पर्शाश्च सम्यगधिसहेत, तथा शीतोष्णदंशमशकक्षुत्पिपासादिकान् परीषहानक्षोभ्यतया निर्जरार्थम् 'अध्यासयेद्' अधिसहेत तथा गंधंसुरभिमितरं च सम्यक् ‘तितिक्षयेत्' सह्यात्, च शब्दादाक्रोशवधादिकांश्च परिषहान्मुमुक्षुस्तितिक्षयेदिति ॥१४॥
टीकार्थ - सूत्रकार यहां यह बतलाते हैं कि विषयों का सेवन न करता हुआ साधु किस तरह भाव समाधि स्वायत्त करता है । जो देह आदि में स्पृहा रहित, मोक्षगमनोद्यत होकर संयम में खिन्नता और असंयम में अनुरक्तता का परित्याग कर आगे वर्णित किये जाने वाले दुःखों को सहता है, वह भाव साधु परमार्थदर्शी है । अकिंचन-अपरिग्रही होने के कारण तृण आदि के स्पर्श तथा निम्न-नीचे, उन्नत-ऊंचे भू प्रदेश के स्पर्श को सम्यक्-भलीभांति सहन करता है, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर, भूख, प्यास, आदि परीषहों को निर्जरा हेतु अक्षुब्ध होता हुआ सहन करता है । तथा सुगन्ध दुर्गन्ध आदि को बर्दाश्त करता है, 'च' शब्द से आक्रोशतर्जन, वध-हनन प्रतिहनन आदि दुःखों को झेलता है, वही पुरुष वास्तव में मुमुक्षु है, वही सहिष्णु है ।
गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहलू परिवएज्जा । गिहं न छाए णवि छायएज्जा, संमिस्सभावं पयहे पयासु ॥१५॥ छाया - गुप्तो वाचा च समाधि प्राप्तो, लेश्यां समाहृत्य परिव्रजेत् ।
गृहं न छादयेन्नाऽपि छादये त्संमिश्रभावं प्रजह्यात्प्रजासु ॥ अनुवाद - जो साधु वाणी से गुप्त है - असत् वचन से परिवर्जित है, वह भाव समाधि को प्राप्त है । साधु शुद्ध लेश्या-दोष रहित अंतः परिणति स्वीकार कर परिव्रज्या का-संयम धर्म का पालन करे, वह खुद घर का छादन न करे-छत आदि न बनाये तथा अन्य द्वारा भी वैसा न करवाये । स्त्री संसर्ग का त्याग करे ।
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