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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अइमाणं च मायं च, तं परिण्णाय पंडिए । गारवाणि य सव्वाणि णिव्वाणं संधए मुणि ।त्तिबेमि ॥३६॥ छाया - अति मानञ्च मायाञ्च, तत् परिज्ञाय पण्डितः ।
गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं संधयेन्मुनिः ॥ अनुवाद - विद्वान् विवेकशील मुनि अतिमान-अत्यधिक अहंकार, तथा माया, छल, प्रपंच और सांसारिक भोगों को जानकर उनका परित्याग कर मोक्ष की प्रार्थना, आकांक्षा करे ।
टीका - प्रतिषेध्यप्रधाननिषेधद्वारेण मोक्षाभिसन्धानेनाह-अतिमानो महामानस्तं, च शब्दात्तत्सहचरितं क्रोधं च, तथा मायां च शब्दात्तत्कार्यभूतं लोभं च, तदेतत्सर्वं 'पण्डितो' विवेकी ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरेत्, तथा सर्वाणि 'गारवाणि' ऋद्धि रससात रुपाणि सम्यग् ज्ञात्वा संसारकारणत्वेन परिहरेत्, परिहत्य च 'मुनिः' साधुः 'निर्वाणम्' अशेष कर्मक्षयरूपं. विशिष्टाकाशदेशं वा 'सन्धयेत्' अभिसन्दध्यात् प्रार्थये दिति यावत् । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३६॥
समाप्तं धर्मारव्यं नवममध्ययनमिति ।
टीकार्थ - प्रतिसेध्य-प्रतिसेध करने योग्य वस्तुओं में जो प्रधान-मुख्य है, उनका निषेध करते हुए सूत्रकार मोक्ष प्राप्ति के सन्दर्भ में बतलाते हैं । अतिमान महान् मान या अत्यधिक अहंकार, च शब्द से संकेतित उसके सहचारी क्रोध तथा माया और च शब्द से सूचित माया का लोभ इनको विवेकशील पुरुष ज्ञेय परिज्ञा द्वारा जानकर, प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा इनका परित्याग करे । ऋद्धि, रस तथा सुखरूप अभिप्सित पदार्थों को संसार का कारण-जन्म मरण का हेतु जानकर साधु इन्हें त्याग दे । समस्त कर्मों के क्षय रूप अथवा लोकाकाश के विशिष्ट भाग स्वरूप जो निर्वाण-मोक्ष पथ है उसकी कामना करे। यहाँ इति शब्द समाप्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि-बोलता हूँ यह पहले की ज्यों योजनीय है।
धर्म नामक नवम् अध्ययन समाप्त हुआ ।
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