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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् में या रात में प्राणियों को पीड़ा देना काल प्राणातिपात है । भाव प्राणातिपात इस प्रकार है-इन पहले कहे गये प्राणियों के हाथ पैर बांधकर अथवा अन्य किसी प्रकार से पीड़ा देना इसके अन्तर्गत आता है । अपने हाथ पैर और देह को संयत रखते हुए इन प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिये । यहां आये हुए 'च' शब्द से सूचित होता है कि उच्छवास, नि:श्वास, कास-खांसी क्षुत-छींक, वातनिसर्ग-अधो वायु का निस्सरण तथा मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक कर्म इन सबमें-सर्वत्र संयत होते हुए भाव समाधि का अनुपालन करना चाहिये। दूसरों द्वारा अदत्त-नहीं दिये पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिये । यह तृतीय व्रत का उपन्यास-उपदेश है । यहां अदत्तादान के निषेध से प्रसंगतः परिग्रह का भी निषेध हो जाता है । अपरिग्रहीत भाव-परिग्रह किये बिना किसी भी वस्तु का आसेवन नहीं किया जा सकता । अतः यहां परिग्रह के निषेध के कारण अब्रह्मचर्य का निषेध भी प्रसंगतः हो जाता है । समस्त व्रतों के सम्यक् परिपालन के उपदेश के कारण असत् भाषण का भी यहां सहज ही निषेध हो जाता है।
सुयक्खाय धम्मे वितिगिच्छतिण्णे, लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥३॥ छाया - स्वाख्यातधर्मा विचिकित्सातीर्णः, लाढश्चरेदात्मतुल्यः प्रजासु ।
_आयं न कुर्य्यादिह जीवितार्थी, चयं न कुर्यात् सुतपस्वी भिक्षुः ॥
अनुवाद - स्वाख्यात धर्मा-श्रुत चारित्र मूलक धर्म का सुन्दर रूप में आख्यात करने वाला सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म में विचिकित्सा-शंका रहित अचित्त, एषणीय आहार द्वारा देह निर्वाहक सुतपस्वी-उत्तम तपश्चरण शील साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझता हुआ संयम का परिपालन करे । संयत जीवन पूर्वक चिरकाल पर्यन्त जीने की इच्छा लिये वह आश्रवों का सेवन न करे । अनागत हेतु संचय-धन धान्यादि का संग्रह न करे ।
टीका- ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याह-सुष्ट्वाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुनाऽसौ स्वाख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरुक्तो भवति, न हि विशिष्टपरिज्ञानमन्तरेण स्वाख्यातधर्मत्वमुपपद्यत इति भावः तथा विचिकित्साचित्तविप्लुतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा तां '[वि] तीर्णः'-अतिक्रान्तः 'तदेव च निःशंक यज्जिनैः प्रवेदित मित्येवं निः शंकतया न क्वचिच्चितविप्लुतिं विधत्त इत्यनेन दर्शनसमाधिःप्रतिपादितो भवति, येन केन चित्प्रासुक्राहारोपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयतिपालयतीति लाढः, स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं 'चरेदू' अनुतिष्टेत्, तथा प्रजायन्त इति प्रजा:-पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मतुल्यः, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थ, एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति, तथा चोक्तम् -
"जह मम ण पियं दुक्खं, पाणिय एमेव सव्वजीवाणं । ण हणइ ण हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥१॥" छया - यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एवमेव सर्वसत्त्वानां । न हन्ति, न घातयति च समंमन्यते ते न स श्रमणः॥१॥
यथा च ममाऽऽक्रुश्यमानस्याभ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो भवति, तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा 'आय' कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् तथा 'चयम्' उपचयमाहारोपकरणादेर्धनधान्यद्विपद चतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षणं संचयमायत्यर्थ सुष्ठु तपस्वी सुतपस्वी विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भिक्षुर्न कुर्यादिति ॥३॥
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