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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् संसारोत्तरणाय तीर्थंकरगणधरादयः द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेकान्तिका अनात्यन्तिकाश्च भवन्ति अन्ते चावश्यम समाधिमुत्पादयन्ति, तथा चोक्तम् -
"यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः। किम्पाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥१॥"
इत्यादि, तदेवं 'बुद्धः' अवगत तत्त्वः स चतुर्विधेऽपि ज्ञानादिके रतो-व्यवस्थितो 'विवेके वा' आहारोप करणकषाय परित्यागरूपेद्रव्यभावात्मकेरतःसन्नेवंभूतश्चस्यादित्याह-प्रमानांदशप्रकाराणामप्यतिपातो-विनाशस्तस्माद्विरतः स्थितः सम्यग्मार्गेषु आत्मा यस्य सः पाठान्तरं वा 'ठियच्चि' त्ति स्थिता शुद्धस्वभावात्मना अर्चिः-लेश्या यस्य स भवति स्थितार्चिः-सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः ॥६॥
टीकार्थ - जो करुणास्पद-दयनीय वृत्ति-आजीविका करता है वह कंगला-भिखारी आदि आदीनवृत्ति कहा जाता है वह भी पाप का आचरण करता है । कहीं 'आदीन भोजी' पाठ प्राप्त होता है । उसका तात्पर्य यह है कि जो पुरुष बड़ी कठिनाई से पेट पालता है वह भी पाप करता है । कहा है-रोटी के टुकड़े के लिये भटकता हुआ दशील-दुराचरण युक्त पुरुष नरक से नहीं.छुट पाता । वह अज्ञ प्राणी कभी शोभन-उत्तम, प्रिय आहार न मिलने से आर्त एवं रौद्र ध्यान कर सातवीं नरक भूमि में भी पैदा हो सकता है । उदाहरणार्थ-राजगृह नगर में एक उत्सव के अवसर पर बाहर निकले हुए लोगों से भिक्षा न मिलने पर उन पर क्रुद्ध होकर एक भिक्षु उन पर शिला गिराने हेतु वैभार पर्वत पर चढ़ने को उद्यत हुआ-चढ़ने लगा किन्तु संयोग से उसका पैर फिसल गया। वह गिर गया और मर गया । अतः जो दीनतापूर्वक भिखारी की ज्यों दु:ख से पेट पालता है वह भी दुष्कर्म करता है । यह जानकर तीर्थंकर तथा गणधर आदि महापरुषों ने संसार सागर से पार उतरने के लिये भाव रूप ज्ञानादि समाधि का आख्यान किया-प्रतिपादन किया जो एकान्तिक और आत्यन्तिक रूप में आत्मकल्याणकारी है । द्रव्य समाधि स्पर्श गत भौतिक सुखों को उत्पन्न करती है किन्तु वह एकान्तिक व आत्यन्तिक नहीं है - उनसे प्राप्त सुख अनिश्चित एवं स्वल्पकालिक होते हैं, अन्त में वे असमाधि-दुःख पैदा करते हैं । कहा है - जैसे किंपाक नामक फल खाते समय बड़ा ही परितुष्टिकारक होता है किन्तु बाद में अत्यन्त दुख जनक सिद्ध होता है । उसी प्रकार सांसारिक भोग भी सेवन करते समय मन को परितुष्ट करते हैं किन्तु बाद में अत्यन्त दुःखोत्पादक होते हैं । अतः तत्वज्ञ-ज्ञानी पुरुष चतुर्विध ज्ञानादि समाधि में रत-अवस्थित रहे। अथवा आहार उपकरण कषाय का परित्याग कर द्रव्य-भावात्मक समाधि में संलग्न रहे । ऐसा कर वह दस विध प्राण विनाश से-हिंसा से विरत रहे । आत्मा को सम्यक् मार्ग में सम्यक् साधना पथ पर सुस्थिर बनाये रखे । अथवा 'ढियच्चि' पाठान्तर के अनुसार साधु विशुद्ध स्थिर लेश्यायुक्त रहे ।
सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेवसिलोय कामी ॥७॥ छाया - सर्वं जगत्तु समतानुप्रेक्षी, प्रियमप्रियं कस्यचिन्न कुर्यात् ।
उत्थाय दीनश्च पुनर्विषण्णः संपूजन ञ्चैव श्लोक कामी ॥ अनुवाद - साधु समग्र जगत समता से-समान भाव से देखे वह किसी का न प्रिय करे और न अप्रिय ही अथवा न किसी को प्रिय समझे और न अप्रिय ही । कई ऐसे होते हैं जो उत्थित होकर-प्रव्रज्या धारण
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