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श्री समाध्ययनं कर परिसहों और उपसर्गों के आने पर दीन दुर्बल हो जाते हैं और साधु जीवन का त्याग कर पतित हो जाते हैं । कई अपने संपूजन-सत्कार एवं श्लोक-यश के आकांक्षी बन जाते हैं ।
टीका - किञ्च-'सर्व' चराचरं 'जगत' प्राणिसमूहं समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समतापश्य को वा, न कश्चित्प्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-"नत्थि य सि कोइ विस्सो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु"- छाया - नास्ति तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियश्च सर्वेषु चैव जीवेषु-तथा "जह मम ण पियं दुक्खमि' त्यादि, समतोपेतश्च न कस्यचित्प्रियमप्रियं वा कुर्यान्निःसङ्गतया विहरेद्, एं हि सम्पूर्णभाव समाधियुक्तो भवति, कश्चितु भाव समाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहोपसर्गस्तर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति विषयार्थी वा कश्चिद्गार्हस्थ्यमप्यवलम्बते रससाता गौरवगृद्धो वा पूजासत्काराभिलाषी स्यात् तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादिभावेन वा विषण्णो भवति, कश्चित्तथा सम्पूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत् 'श्लोककामी च' श्लाघाभिलाषी च व्याकरण गणित ज्योतिष निमित्त शास्त्राण्यधीते कश्चिदिति ॥७॥
टीकार्थ - साधु सभी चर-जंगम, अचर-स्थावर प्राणी समूहों को समतापूर्वक देखे । किसी को प्रियप्रीतिजनक, तथा अप्रिय-अप्रीतिजनक न माने । कहा है-समग्र प्राणियों में साधु का न कोई द्वेष्य-द्वेष करने योग्य या द्वेष का पात्र है और न कोई प्रिय-प्रीतिपात्र है । अतएव साधु यह चिंतन करता है कि जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं लगता उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी वह प्रिय नहीं है । यों समभाव से समन्वित होकर वह न किसी का प्रिय करे और न अप्रिय ही । वरन् निःसंग-आसक्ति विवर्जित होकर विहरण करे । जो साधु इस प्रकार करता है वह सर्वथा भाव समाधियुक्त होता है किन्तु कोई पुरुष भाव समाधि से सम्यक् समुत्थित्उत्साहित होकर-दीक्षित होकर भी परिषहों और उपसर्गों से तर्जित-आक्रान्त, व्यथित हो जाता है, दैन्य भाव अपना लेता है । विषन्न-विषादयुक्त बन जाता है । कोई विषयार्थी-सांसारिक भोग में लोलुप बन कर गृहस्थ बन जाता है अथवा रस मधुर स्वादिष्ट पदार्थ और सुख सुविधा में आसक्त होकर पूजा-प्रशस्ति एवं सत्कार का आकांक्षी हो जाता है । जब वैसा नहीं मिलता तब वही दीन-आत्मबल विहीन होता हुआ पार्श्वस्थ आदि हो जाता है । कोई वस्त्र पात्र आदि की अभ्यर्थना करता है तथा कोई अपनी शिलाधा-प्रशंसा या कीर्ति हेतु व्याकरण, गणित, ज्योतिष तथा निमित्त शास्त्र का अध्ययन करता है ।
आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसण्णमेसी । इत्थीसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे ॥८॥ छाया - आधाकृतञ्चैव निकाममीणो, निकाम चारी च विषण्णेषी ।
__ स्त्रीषु सक्तश्च पृथक् च बालः परिग्रहञ्चैव प्रकुर्वाणः ॥ अनुवाद - जो प्रव्रजित पुरुष आधाकर्मी आहार-साधु को उद्दिष्ट कर बनाये गये भोजन की आकांक्षा करता है । उसे लेने हेतु बहुत घूमता फिरता है वह अनाचरणशील है । जो स्त्रियों में आसक्त होता हुआ उनके हाव भावों में मोहित रहता है तथा उन्हें प्राप्त करने हेतु परिग्रह-धनादि का संग्रह करता है वह अपना पाप बढ़ाता है ।
टीका - किञ्चान्यत्-साधुनाधाय-उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमहारोप करणादिकं निकामम्-अत्यर्थ यः प्रार्थयते स निकाममीणेत्युच्यते । तथा 'निकामम्' अत्यर्थं आधा कर्मादीनि तन्निमित्तं
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