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श्री समाध्ययन ज्ञानावरणादिकं कर्म ‘क्रियते' समादीयते, तथा परांश्च भृत्यादीन् प्राणातिपातादौ 'नियोजयन्' व्यापारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृषावादादिकं च कुर्वन् कारयंश्च पापकं कर्म समुच्चिनोतीति ॥५॥
टीकार्थ - पहले बनस्पति काय के प्रत्येक तथा साधारण जो दो भेद बतलाये गये हैं उनको जो अज्ञ पुरुष 'च' शब्द से सूचित कोई अन्य पुरुष पीड़ा देता है अर्थात् वह इन्हें तोडता है, काटता है, परितप्त करता है, द्रवित करता है, गलाता है एवं 'आदि' शब्द से वह सूचित है कि किसी अन्य प्रकार से कष्ट देता है, वह पुरुष अत्यन्त पापार्जन करता है । वह अपने पाप के फल भोग हेतु इन्हीं पृथ्वी आदि प्राणियों में पुनः पुनः जन्म लेता है तथा अनन्त काल पर्यन्त पीडित किया जाता है, कष्टभागी होता है । यहां 'एवं तु बाले' ऐसा पाठान्तर भी प्राप्त होता है । यहां प्रयुक्त ‘एवं' शब्द उपदर्शन या उदाहरण सूचित करने हेतु है । जैसे चोर या परस्त्रीगामी पुरुष दूषित कर्म कर इस लोक में हस्तपाद छेदन-हाथ पैर काटा जाना तथा बंध-वध किया जाना आदि के रूप में यातना प्राप्त करता है इसी प्रकार अन्य पाप कर्मकारी पुरुष भी इस लोक में और परलोक में दुःखों के भागी बनते हैं । यह सामान्यतोदृष्ट अनुमान द्वारा साबित होता है । कहीं 'आउट्टति' पाठ प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि विवेकी पुरुष अशुभ कर्मों के विपाक-फल देखकर श्रवण कर या ज्ञात कर कर्मों से निवृत्त हो जाता है ।
वे कौन कौन से पाप के अधिष्ठान हैं ? जिनमें प्राणी प्रवृत्त होते हैं ? और जिनसे निवृत्त होते हैं? इसके उत्तर में कहते हैं-पुरुष प्राणियों के प्राणों का अतिपात-प्राणव्पपरोपण करने से ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्मों का बंध करता है तथा जो अपने भृत्य आदि अन्य पुरुषों को प्राणातिपात हिंसा करने में नियोजित करता है, व्यावृत करता है, वह पाप का आचरण करता है । यहां आए 'तु' शब्द से सूचित है कि वह असत्य भाषण आदि करता है तथा औरों से वैसा करवाता है । यों करता हुआ वह पाप संचित करता है।
आदीणवित्तीव करेति पावं, मंता उ एगंत समाहिमाहु ।' बुद्धे समाहीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियप्पा ॥६॥ छाया - आदीनवृत्तिरपि करोति पापं, मत्वात्वेकान्तसमाधि माहुः ।
बद्धः समाधौ च रतो विवेके, प्राणातिपाताद विरत: स्थितात्मा ॥ अनुवाद - जो पुरुष दीनता दिखलाकर भीख आदि द्वारा गुजारा करने वाले की ज्यों अपनी आजीविका चलाता है, वह भी पाप करता है । यह मानकर तीर्थंकरों ने भाव समाधि का निरूपण-प्रतिपादन किया । बुद्धज्ञानयुक्त विवेकशील स्थिरचेता पुरुष समाधि में अभिरत होता हुआ हिंसा से निवृत्त रहे।
टीका - किञ्चान्यत्-आ-समन्ताद्दीना-करुणास्पदा वृत्तिः-अनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादेः स भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पापं कर्म करोति, पाठान्तरं वा आदीनभोज्यपि पापं करोतीति, उक्तं च
"पिंडोलगेव दुस्सीले, णरगाओ ण मुच्चइ" छाया - पिण्डावलगकोऽपि दुःशीलो नरकान्न मुच्यते, स कदाचिच्छोभनमाहारमलभमानोऽज्ञत्वादात रौद्रध्यानोपगतोऽधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत, तद्यथा-असावेव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूह वैभार गिरि शिलापात नोद्यतःस दैवात्स्वयं पतितः पिण्डोपजीवीति, तदेवमादीनभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोतीत्येवं 'मत्वा' अवधार्य एकान्तेनात्यन्तेन च यो भावरूपो ज्ञानादिसमाधिस्तमाहुः
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