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टीकार्थ
जो श्रुत-सम्यग्ज्ञान तथा चारित्र - सम्यक् आचार रूप धर्म का सुष्ठु रीति से भलीभांति उपदेश करता है वह साधु स्वाख्यातधर्मा कहा जाता है । इस विशेषण द्वारा साधु की ज्ञान समाधि प्रकट की गई है क्योंकि विशिष्ट परिज्ञान के बिना कोई धर्म को सुंदर रूप में प्रतिपादित नहीं कर सकता । चित्त विप्लुति - चैतसिक शंका या विद्वानों की जुगुप्सा - निन्दा को विचिकित्सा कहा जाता है । उसको अतिक्रान्त कर जिनेश्वर देव ने जो कहा है, वही सत्य है, यह मानकर, विश्वास कर चित्त में संदेह रहित होता हुआ तथा जो कुछ प्रासुकऐषणीय आहार या अन्य अपेक्षित सामग्री प्राप्त हो उसी से अपना निर्वाह करता हुआ संयम का परिपालन करे। जो बार - बार जन्म लेते हैं, उन्हें प्रजा कहा जाता है। पृथ्वी आदि प्राणी प्रजा के अन्तर्गत हैं। इनको जो अपनी आत्मा के तुल्य मानता है वह भाव साधु कहा जाता है। कहा गया है कि जैसे मुझे दुःख प्रीतिकर नहीं लगताअच्छा नहीं लगता इसी तरह वह सभी प्राणियों के लिये प्रीतिकर नहीं है, यह जानकर जो प्राणियों का हनन नहीं करता औरों से उनका हनन नहीं करवाता, उनको समानभाव से मानता है, देखता है वह श्रमण कहा जाता है । वह यह अनुभव करता है कि जैसे मुझ पर कोई आक्रोश करता है, मुझे डराता है, मुझ पर कलंकदोष लगाता है तो मुझे दुःख होता है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है, यह मानता हुआ - समझता हुआ साधु समस्त प्रजा - प्राणियों को आत्मसम-अपने समान समझता है। साधु इस लोक में असंयममय जीवन का अर्थी-इच्छुक न बने । अथवा मैं चिरकाल तक सुख के साथ जीवित रहूं, मन में ऐसा अध्यवसाय - भाव या परिणाम लाकर कर्माश्रव का सेवन न करे-कर्म न बांधे । सुतपस्वी - उत्तम तपश्चरण शील अथवा कठोर तप से संतप्त युक्त साधु धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि धन का संचय न करे ।
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श्री समाध्ययनं
सूत्रकार ज्ञानदर्शन तथा समाधि को अधिकृत कर कहते हैं।
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सव्विंदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सुव्वतो विप्पभुक्के । पासाहि पाणे य पुढोवि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्यमाणे ॥४॥
छाया
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सर्वेन्द्रियाभिनिर्वृतः प्रजासु, चरेन्मुनिः
सर्वतोविप्रमुक्तः । पश्य प्राणश्च पृथगपि सत्त्वान्, दुःखेनार्त्तान् परितप्यमानान् ॥
अनुवाद - मुनि प्रजा - स्त्रियों के संदर्भ में अपनी समस्त इन्द्रियों को नियन्त्रित रखे । सब प्रकार के बंधनों से विप्रमुक्त-उन्मुक्त होता हुआ शुद्ध संयम का परिपालन करे, इस संसार में पृथक्-पृथक् प्राणी दुःखों से आ है - परितप्त है, यह देखे ।
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टीका किञ्चान्यत्-सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरभिनिर्वृतः संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क्क ? 'प्रजासु' स्त्रीषु तासु हि पंचप्रकारा अपि शब्दादयो विषयो विद्यन्ते, तथा चोक्तम् "कलानि वाक्यानि विलासिनीनां गतानि रम्याण्यवलोकितानि ।
रतानि चित्राणि च सुन्दरी॑णां रसोऽपि गंधोऽपि च चुम्बनानि ॥१॥"
तदेवं स्त्रीषु पञ्चेन्द्रिय विषयसम्भवात्तद्विषये संवृतसर्वेन्द्रियेण भाव्यम्, एतदेव दर्शयति- 'चरेत् ' संयमानुष्ठानमनुतिष्ठेत् 'मुनिः' साधुः 'सर्वत: ' सबाह्यायभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तौ विप्रमुक्तो निसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः, स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् 'पश्य' अवलोकय पृथक् पृथक् पृथिव्यादिषु कायेषु
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