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श्री समाध्ययनं ने धर्म समाधि-धर्म के साधना मूलक तत्त्व को आत्मसात् किया है । वह अनिदानभूत है । प्राणियों के प्रति आरंभ-हिंसा मूलक व्यवहार निदान कहा जाता है और वह प्राणी हिंसा से दूर रहने के कारण अनिदान है। सावद्य-पापपूर्ण अनुष्ठान रहित है । वह सर्वथा संयम के आचरण में गतिशील रहे अथवा अनिदानभूतका एक अर्थ अनाश्रवभूत या आश्रवरहित है । यों वह साधु कर्मों के उपादान से विवर्जित है । उस दिशा में वह सतत् उद्यत रहे । अथवा अनिदानभूत का अर्थ अनिदान सद्दश ज्ञानादि है, उनमें साधु उद्यमशील रहे । निदान का एक अर्थ दुःख का हेतु या कारण है । वह साधु दुःख का अनिदान भूत है । किसी के लिये दुःख उपपनउत्पन्न नहीं करता । वह सदैव संयम में पराक्रमशील रहे। .
उड्ढे अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जेथावर जे य पाणा। हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य णो गहेजा ॥२॥ छाया - ऊर्ध्वमस्तिय॑ग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः ।
हस्तैः पादैश्च संयम्य, अदत्त मन्यैश्च न गृह्णीयात् ॥ अनुवाद - उर्ध्व-ऊपर की दिशा में, अध:-नीचे की दिशा में तिर्यक्-तिरछी दिशा में, तथा अन्य दिशाओं में जो त्रस एवं स्थावर प्राणी रहते हैं, अपने हाथ पैर आदि को नियंत्रित रखते हुए उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिये । दूसरों के द्वारा नहीं दी गई वस्तु लेनी नहीं चाहिये ।
टीका - प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा, तत्र क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याहसर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्षयोर्ध्वमधस्तिर्यक् क्रियते, यदिवाऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति, द्रव्यप्राणातिपातस्त्वयं-त्रस्यन्तीति त्रसाद्वीन्द्रियादयो ये च 'स्थावराः' पृथिव्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपात संसूचनार्थो वा दिवा रात्रौ वा, 'प्राणाः' प्राणिनः भावप्राणतिपातं त्वाह-एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनो हस्तपादाभ्यां "संयम्य" वद्धवा उपलक्षणार्थत्वाद स्यान्यथा वा कदर्थ यित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तन्नकुर्यात्, यदि वैतान् प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयम्य संयतकायः सन्न हिंस्यात्, च शब्दादुच्छ्वासनिश्वासकासितक्षुतवातनिसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाक्कायकर्मसु संयतो भवन् भावसमाधिमनुपालयेत्, तथा परैरदत्तं न गृह्णीयादिति तृतीयव्रतोपन्यासः, अदत्तादाननिषेधाच्चार्थतः परिग्रहो निषिद्धो भवति,नापरिगृहीतमासेव्यतइति मैथुननिषेधोऽपयुक्तःसमस्तव्रतसम्यक्पालनोपदेशाच्च मृषावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति ॥२॥
टीकार्थ - प्राणातिपादादि कर्म के निदान या बंध के हेतु हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की दृष्टि से प्राणातिपात के चार भेद हैं । इनमें क्षेत्र प्राणातिपात को अधिकृत कर कहा गयाहै । क्रियमाण-किये जाते सभी प्राणातिपात प्रज्ञापक-ज्ञापित करने वाले की अपेक्षा से ऊर्ध्व अधः तथा तिर्यक क्षेत्रों में किये जाते हैं अथवा ऊर्ध्व, अधः तिर्यक् रूप तीनों लोकों में किये जाते हैं तथा पूर्व आदि दिशाओं में तथा विदिशाओं में किये जाते हैं । वे तब क्षेत्र प्राणातिपात के अन्तर्गत आते हैं । द्रव्य प्राणातिपात इस प्रकार है-जो प्राणी त्रास पाते हैं-त्रस्त होते हुए प्रतीत होते हैं वे द्विइन्द्रियादि प्राणी हैं । जो स्थितिशील हैं, वे पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी हैं। यहां च'कार का प्रयोग स्वगत भेद के सूचन हेतु है । अथवा वह काल प्राणातिपात को सूचित करता है। दिन
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