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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् उत्तर में बतलाया जाता है कि भगवान मतिशाली हैं । समग्र पदार्थों का ज्ञान मति कहलाता है, वैसा ज्ञान जिनमें होता है, वे सर्वज्ञ या केवलज्ञानवान महापुरुष मतिमान या मतिशाली कहे जाते हैं । यद्यपि केवलज्ञान के धारक-सर्वज्ञ अनेक हुए हैं किन्तु यहां मतिमान विशेषण असाधारण अर्थ के साथ प्रयुक्त है जो तीर्थंकर का द्योतक है । तीर्थंकरों में भगवान महावीर सर्वाधिक आसन्नवर्ती है । अतः इस विशेषण से यहां वे ही गृहीत होते हैं । भगवान महावीर ने श्रुतचारित्रमूलक धर्म का आख्यान किया ।
वैसा किस प्रकार किया ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि उन्होंने केवलज्ञान-सर्वज्ञत्व के माध्यम से जगत के पदार्थों का स्वरूप जानते हुए उनमें से उपदेष्टव्य-उपदेश देने योग्य पदार्थों को गृहीत कर धर्म का आख्यान किया । भगवान ने पहले धर्म का श्रवण करने वाले पुरुष को लक्षित कर कहा था कि यह पुरुष किस पदार्थ को ग्रहण करने में सक्षम हो सकताहै । यह कौन है ? किस देव या गुरु के प्रतिप्रणत हैं ? किसमें आस्था रखता है ? यह किस दार्शनिक-सिद्धान्त का अनुयायी है इत्यादि तत्त्वों को निश्चित कर उन्होंने धर्म का आख्यान किया ।
अथवा धर्म की उपासना करने वाले पुरुषों का ऐसा अभिमत है कि भगवान ने हम लोगों में से प्रत्येक को अभिलक्षित कर धर्म का अभिभाषण किया । भगवान द्वारा दिया गया धर्मोपदेश एक ही समय में समस्त प्राणियों की भाषा में परिवर्तित हो
___भगवान किस प्रकार के धर्म का उपदेश करते हैं ? इसके उत्तर में प्रतिपादित किया जाता है कि भगवान ऋजु-अवक्र, टेढेपनरहित सरल धर्म का उपदेश करते हैं अर्थात् यथावस्थित वस्तु का यथावत स्वरूप निरूपित करते हैं जो वस्तु जैसी है, उसका वैसा ही स्वरूप प्रतिपादित करते हैं । बोद्ध आदि अन्य मतवादियों की तरह उपदेश नहीं करते । बौद्ध सभी पदार्थों को क्षणिक स्वीकार करते हैं जिससे उनके सिद्धान्त में कृतनाशकिए हुए का ध्वंस-मिटना तथा अकृताभ्यागम-नहीं किए हुए का आगमन-आना, ये दोष उपस्थित होते हैं।
अतएव वे सन्तानवाद का सिद्धान्त स्वीकार करते हैं । वे वनस्पति को अचेतन-चेतनारहित, प्राणरहित मानते हैं । वे उसका स्वयं छेदन नहीं करते किन्तु उसके छेदन आदि का उपदेश करते हैं । यद्यपि वे स्वयं कार्षापणरुपये पैसे आदि सिक्के हिरण्य स्वर्ण आदिबहुमूल्य धातुएं आदि नहीं छूते किन्तु अन्य के द्वारा उनका संग्रह करवाकर, खरीद बिक्री करवाते हैं ।
इसी प्रकार सांख्य मतवादी सभी पदार्थों को अप्रच्युत-विनाश रहित, अनुत्पन्न-उत्पत्ति रहित स्थिर स्वभाव तथा नित्य मानते हैं । ऐसा मानने से कर्मों का बंध घटित नहीं होता है और न मोक्ष ही सिद्ध होता है । ऐसा दोष आने के भय से वे सभी पदार्थों का आविर्भाव-प्राकट्य या तिरोभावलय मानते हैं । यह मान्यता कौटिल्यभावकुटिलता युक्त है । भगवान महावीर ने ऐसे कुटिलतापूर्ण भाव का परिहार करते हुए अवक्र-सरल तथ्य-सत्य सिद्धान्त युक्त धर्म का आख्यान किया, जिसके द्वारा आत्मा सम्यक-भली भांति मोक्ष या मोक्ष के मार्ग में टिकायी जाती है, स्थापित की जाती है । उस ओर बढ़ने योग्य की जाती है, उसे धर्म कहा जाता है । अथवा भगवान ने धर्म का और उसकी समाधि का अर्थात् धर्मध्यान आदि का आख्यान किया ।
श्री सुधर्मास्वामी अपने अंतेवासियों से कहते हैं-तुम लोग उस धर्म या समाधि-साधना के संबंध में श्रवण करो, जिसे भगवान महावीर ने उपदिष्ट किया । जो पुरुष अपने तपश्चरण के फल के रूप में ऐहिक और पारलौकिक सुख की आकांक्षा नहीं रखता वही वास्तव में भिक्षोपजीविभावभिक्षु-सच्चा साधु है । उसी
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