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धर्म अध्ययनं इन गुणों से युक्त होती हैं अथवा देव आदि की व्यावृति - पृथकता - अपाकरण के लिये यहां नर शब्द का कथन है। स्त्रियों की व्यावृत्ति हेतु नहीं । यहां प्रयुक्त पुरुषादानीय का तात्पर्य यह है कि आत्म हितेच्छु पुरुष जिनका आदान-ग्रहण करते हैं वह मोक्ष या सम्यक् वर्णन, ज्ञान या चरित्र रूप मोक्ष मार्ग पुरुषादानीय हैं। वह पुरुषों द्वारा आदान ग्रहण किया जाता है। मोक्षरूप या मोक्ष मार्ग स्वरूप है । अतः पुरुषादानीय शब्द की यहाँ संगति है। व्याकरण के अनुसार पुरुषादानीय शब्द में मत्वर्थीय अच् प्रत्यय हुआ है। जो पुरुष इस प्रकार के होते हैं, वे ही अपने अष्टविध रूप कर्म का क्षय करते हैं, वीर हैं, तथा पुत्र, स्त्री आदि के मोहात्मक बाद्य तथा आन्तरिक बन्धनों से मुक्त । वे असंयममय जीवन या प्राण धारण की आकांक्षा-कामना नहीं करते ।
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अगिद्धे
सव्वं
छाया
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सद्दफासे
आरंभेसु
तं समयातीतं, जमेतं
अगृद्धः शब्द स्पर्शेष्वारम्भेष्वनिश्रितः ।
सर्वं तत्समयातीतं यदेतल्लपितं बहु ॥
अणिस्सिए ।
लवियं
बहु ||३५||
अनुवाद साधु शब्द रूप, रस, गंध एवं स्पर्श मूलक इन्द्रिय भोगों में अगृध- अलोलुप रहे तथा वह आरम्भ-हिंसा आदि पाप युक्त अनुष्ठानों में अनिश्रित - असंलग्न रहे । इस अध्ययन के आदि में जो कहा गया है कि सर्वज्ञों द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों के विरुद्ध होने के कारण निषिद्ध है, उसका निषेध किया गया किन्तु जो सर्वज्ञ सिद्धान्तों के अनुरूप है उसका निषेध नहीं 1
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टीका - किञ्चान्यत्- 'अगृद्धः' अनध्युपपन्नोऽमूर्च्छितः क ? - शब्दस्पर्शेसु मनोज्ञेषु आद्यन्तग्रहणान्मध्य ग्रहण मतो मनोज्ञेषु रुपेषु गन्धेषु रसेषु वा अगृद्ध इति द्रष्टव्यं तथेतरेषु वाऽद्विष्ट इत्यपि वाच्यं, तथा 'आरम्भेषु' सावद्यानुष्ठान रुपेषु' अनिश्रितः' असम्बन्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थ, उपसंहर्तुकाम आह-'सर्वमेतद्' अध्ययनादेराभ्य प्रतिषेध्यत्वेन यत् लपितम् उक्तं मया बहु तत् 'समयाद्' आर्हतादागमादतीत मतिक्रान्तमितिकृत्वा प्रतिषिद्धं, यदपि च विधिद्वारेणोक्तं तदेतत्सर्वं कुत्सितसमयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते, यदपि च तैः कुतीर्थिकैर्बहुलपितं तदेतत्सर्वं समयाती मिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति ॥ ३५ ॥
टीकार्थ - यहाँ इन्द्रिय विषयों के सन्दर्भ में शब्द प्रारम्भ में आता है और स्पर्श अन्त में आता है। इसलिए इन दोनों के ग्रहण से इनके मध्यवर्ती विषयों को भी यहां ग्रहित समझना चाहिए। साधु मन को लुभाने वाले शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श में लोलुप न बने एवं मन को अप्रिय लगने वाले विषयों में वह द्वेष न करे । वह सावद्य - पाप युक्त अनुष्ठान में प्रवृत्त न हो । प्रस्तुत अध्ययन के शुरुआत से लेकर निषेध रूप में जो बातें बतलायी गई हैं, वे सर्वज्ञ सिद्धान्त से विपरीत होने के कारण निषिद्ध-वर्जित है, जिनका विधान किया गया है वे कुतीर्थिकों - मिथ्यात्वी मतवादियों के सिद्धान्तों के प्रतिकूल होने के कारण लोकोत्तर - उत्तम श्रेष्ठ धर्म है-धर्मानुमोदित है । मिथ्यात्वी मतवादियों ने अपने सिद्धान्तों में जो बहुत कुछ कहा है, सर्वज्ञ सिद्धान्त से विपरीत मानकर उसका आचरण अनुसरण नहीं करना चाहिए ।