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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् हस्तगत जैसी है । भोग विषयगत रागद्वेष को नियंत्रित कर जो जितेन्द्रीय हैं वही शिष्य गुरुकुल में निवास कर गुरुजन की सेवा करते हैं । अथवा वैसे ही गुरु जैसा ऊपर कहा गया है, वैसी विशेषताओं से युक्त होते हैं। प्रस्तुत विवेचन में धृति की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि जिसमें धृति होती है उसी का तपश्चरण सधता है । जो तप को साधता है उसे श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है । जो व्यक्ति द्रति से रहित है उसके तप का सद् पाना कठिन है।
गिहे दीवमपासंता, पुरिसादाणियानरा ।
ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं ॥३४॥ छाया - गृहे दीप (द्वीप) मपश्यन्तः पुरुषादानीया नराः ।
ते वीरा बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥ अनुवाद - घर में गृहस्थ, जीवन में दीप-ज्ञान की ज्योति का लाभ नहीं हो सकता, यह सोचकर जो पुरुष प्रव्रज्या स्वीकार कर लेते हैं, संयममूलक गुणों की वृद्धि करते जाते हैं, वे ही वीर-आत्मबल के धनी पुरुष बन्धन मुक्त होते हैं । कर्म बन्धन से छूटकर मुक्तिगामी होते हैं । वे असंयम मय जीवन की कांक्षाअभिलाषा नहीं करते । ____टीका - यद्भि संधायिनः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्ति तदभिधित्सुराह 'गृहे'-गृहवासे गृहपाशे वा गृहस्थ भाव इति यावत् 'दीवं'ति 'दीपी दीप्तौ' दीपयति-प्रकाशयतीति दीपः स च भावद्वीपः श्रुतज्ञान लाभः यदिवा-द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वासभूतः स च भावद्वीपः संसार समुद्रे सर्वज्ञोक्त चारित्रलाभस्तदेवम्भूतं दीपं द्वीपं वा गृहस्थभावे 'अपश्यन्तः' अप्राप्नुवन्तः सन्तः समय्क् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थिता उत्तरोत्तर गुण लाभेनैवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-'नराः' परुषाः पुरुषोत्तमत्त्वाद्धर्मस्य नरोपादानम, अन्यथा स्त्रीणामप्येतदगणभाक्त्वं भवति अथवा देवादिव्युदासार्थमिति, मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया-आस्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदि वा-आदानीयो-हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गों वा सम्यग्दर्शननादिकः पुरुषाणां-मनुष्याणामादानीयः पुरुषादानीय स विद्यते येषा मिति विगह्य मत्वर्थीथोऽर्शआदिभ्योऽजिति, तथा य एवं भूतास्ते विशेषेणेरयन्ति अष्ट प्रकारं कर्मेति वीराः, तथा बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण पुत्र कलत्रादिस्नेहरूपेणोत्-प्राबल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'जीवितम्' असंयम जीवितं प्राणधारणं वा 'नाभिकाङ्क्षन्ति' नाभिलषन्तीति ॥३४॥
टीकार्थ - जिस तथ्य के अभिसंधान में-अनुसंधान में उद्यत पुरुष ज्ञान युक्त एवं तपशील होते हैं, उस संबंध में प्रकाश डालने हेतु सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं । गृहवास-पाश या जाल के सदृश बन्धन है उसमें रहते हुए पुरुष दीपक के सदृश्य प्रकाश करने वाले श्रुत ज्ञानमय भाव प्रदीप को प्राप्त नहीं कर सकते । गाक्ष में आये दीव शब्द को दीप के अर्थ में लेते हुए टीकाकार विवेचन करते है कि समुद्र आदि में प्राणियों के विश्राम देने के लिये जैसे द्वीप होता है, वैसे ही सर्वज्ञ प्रतिपादित चरित्र, धर्ममूलक भाव द्वीप संसार समुद्र में बहते हुये प्राणियों को विश्राम देता है । वह गृहवास में प्राप्त नहीं होता । इस तथ्य के स्वायत्त कर जो पुरुष प्रव्रण्या-संयम मूलक दीक्षा स्वीकार करते हैं । आगे से आगे अपने गुणों की वृद्धि करते जाते हैं, वे मुमुक्षु पुरुषों के लिये आदरणीय-आश्रयनीय, आश्रय लेने योग्य हो जाते हैं । सूत्रकार इस संबंध में यह व्यक्त करते हैं कि धर्म के पुरुषों की मुख्यता है । इसलिए यहाँ पुरुषवाचक नर शब्द का ग्रहण है । अन्यथा स्त्रियां भी
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