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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् छाया - लब्धान् कामान् न प्रार्थयेत्, विवेक एव माख्यातः ।
आाणि शिक्षेत्, बुद्धानामन्तिके सदा ॥ अनुवाद - साधु प्राप्त-जो मिल रहे हो ऐसे काम भोगों की वांछा न करे । ऐसा करने वाले के भाव विवेक-शुद्ध भाव उत्पन्न होता है । ऐसा कहा जाता है । साधु, आचार्य आदि ज्ञानी पुरुषों के सान्निध्य में रहता हुआ आर्यगुण-ज्ञानदर्शन एवं चारित्र की शिक्षा ग्रहण करता रहे ।
टीका- किञ्चान्यत्-लब्धान् प्राप्तानपि कामान्' इच्छामदनरुपान् गन्धालङ्कारवस्त्रादिरूपान्वा वैरस्वामिवत् 'न प्रार्थयेत्' नानुमन्येत न गृह्णीयादित्यर्थः यदि वा-यत्र कामावसामितया गमनादिलब्धिरुपान् कामांस्तपोविशेष लब्धानपि नोपजीव्यात, नाप्य नागतान् ब्रह्मदत्तवत्प्रार्थयेद्, एवं च कुर्वतो भावविवेकः 'आख्यात' आविर्भावितो भवति, तथा 'आर्याणि' आर्याणां कर्तव्यानि अनार्य कर्त्तव्यपरिहारेण यदि वा आचर्याणि-मुमुक्षुणा यान्याचरणी यानि ज्ञान दर्शन चारित्राणि तानि 'बुद्धानाम्' आचार्याणाम् 'अन्तिके' समीपे 'सदा' सर्वकालं शिक्षेत 'अभ्यस्येदिति, अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास आसेवनीय इत्यावेदितं भवतीति ॥३२॥ यदुक्तं बुद्धानामन्तिके शिक्षेत्तत्सवरूप निरूपणायाह -
टीकार्थ - साधु प्राप्त होते हुए भी इच्छानुरुप विषय भोगों को अथवा सुगन्धित पदार्थ, आभूषण तथा वस्त्र आदि को वैरस्वामी की तरह स्वीकार न करे, ग्रहण न करें अथवा अपने विशिष्ट तपश्चरण के प्रभाव स्वरूप निष्पन्न गमनादि लब्धि जिसके द्वारा साधु जहाँ चाहे वहाँ जाकर विषय प्राप्त करने में सक्षम होता है, काम विवर्जित होने के कारण वह उसका उपयोग न करे । जो भोग्य पदार्थ अप्राप्त है, उनकी भी ब्रहदत्त के समान अभ्यर्थना न करे-उन्हें न चाहे । जो ऐसा करता है उसके भाव विवेक-उत्कृष्ट ज्ञानपूर्ण उच्च भाव उत्पन्न होते हैं । साधु अनार्य-अनुत्तम कर्मों, अधम कर्मों का त्याग कर आर्य-उत्तम गुणों का आचरण करे अथवा मुमुक्षु जन द्वारा आचरण करने योग्य ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का आचार्य आदि ज्ञानी पुरुषों के सान्निध्य में रहता हुआ नित्य अभ्यास करे । इससे यह प्रकट है कि शील युक्त पुरुष सदा गुरुकुलवास में गुरु की सन्निधि में रहता हुआ नित्य अभ्यास करे । इससे यह प्रकट है कि शीलयुक्त पुरुष को सदा गुरुकुल वास में गुरु की सन्निधि में रहना चाहिए।
ज्ञानी पुरुषों की सन्निधि में शिक्षा पानी चाहिए, ऐसा जो कहा है उसके स्वरूप का निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं।
सुस्सू समाणो उवासेज्जा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्त पन्नेसी, धितिमन्ता जिइंदिया ॥३३॥ छाया - शुश्रूषमाण उपासीत्, सुप्रज्ञं सुतपस्विनम् ।
वीरा ये आप्तप्रीषिणः, धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ॥ अनुवाद - सुप्रज्ञ-उत्तम प्रज्ञाशील अपने दर्शन तथा अन्य दर्शन के वेत्ता, सुतपस्वी उत्कृष्ट तपश्चरण युक्त गुरु की सुश्रुषा करता हुआ, उन द्वारा बताये जाते तत्वज्ञान का श्रवण करता हुआ साधु उनकी उपासना
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