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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - साधु बिना किसी अन्तराय के, रोग आदि अनिवार्य कारण के बिना, गृहस्थ के घर में न बैठे तथा ग्रामकुमारिका-गांव के लड़कों के दूषित मनोविनोद परक खेल न खेले । अमर्यादित होकर हास्य न करे।
टीका - तत्र साधुर्भिक्षादिनिमत्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन्परो-गृहस्थस्तस्यगृहं परगृहं तत्र 'न निषीदेत्' नोपविशेत् उत्सर्गतः, अस्यापवादं दर्शयति-नान्यत्र 'अन्तरायेणे'त्ति अन्तरायः शक्त्यभावः, स च जरसा रोगातङ्काभ्यां, स्यात्, तस्मिंश्चान्तराये सत्युपविशेत् यदि वा उपशमलब्धिमान् कश्चित्सुसहायो गुर्वनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशना निमित्त मुपविशेदपि, तथा ग्रामे कुमारका ग्राम कुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका काऽसौ ? 'क्रीड़ा' हास्यकन्दर्पहस्त संस्पर्शनालिङ्गनादिका यदिवा वट्टकन्दुकादिका तां मुनिनकुर्यात्, तथा वेला मर्यादा मतिक्रान्तमतिवेलं न हसेत्, मर्यादामतिक्रम्य 'मुनिः' साधुः ज्ञानवरणीयाद्यष्ट विधकर्मबन्धनभयान्नहसेत्, तथा चागमः- जीवे णं भंते ! हस माणे (चा) उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?, गोयमा !, सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा" इत्यादि ॥२९॥
टीकार्थ - भिक्षा आदि के निमित्त गांव आदि में प्रविष्ट होकर साधु गृहस्थ के घर में न बैठे । यह उत्सर्ग मार्ग है । अब सूत्रकार इसका अपवाद प्रकट करते हुए कहते हैं-शक्ति का अभाव अन्तराय कहा जाता है । वह वृद्ध रुग्णता एवं दुरुमय यदि ऐसी अन्तरायात्मक स्थितियों हों, तो वहां बैठने में कोई दोष नहीं माना जाता । अथवा कोई साधु उपशयलब्धि मान हो, साथ में अच्छा सहयोगी हो, गुरु से आज्ञप्त हो, गुरु ने वैसा करने की आज्ञा दी हो तथा किसी को धर्म देशना निमित्त उपदेश देना आवश्यक हो तो, यदि वह गृहस्थ में बैठे तो कोई दोष नहीं है । ग्राम निवासी कुमारों की-लड़कों की क्रीड़ा ग्राम-कुमारिका कही जाती है । हास्य, कामुकचेष्टा, हस्तस्पर्श, आलिंगन आदि के रूप में वह है साधु वैसा न करे अथवा गांव के लड़के गुल्ली डंडे या गेंद आदि से खेलते हैं । साधु वैसा न करे वह ज्ञानावरणीय आदि अष्टविधकर्मों के बंधन के भय से मर्यादा का परित्याग कर न हंसे । आगम में कहा है-हे भगवान् ! हंसता हुआ तथा उत्सुक होता हुआ प्राणी कितनी कर्म प्रवृत्तियों का बंधन करता है ? गौतम ने भगवान् महावीर से ऐसा प्रश्न किया ? जिसके उत्तर में भगवान ने बतलाया कि गौतम ! वह सात या आठ कर्मों प्रकृतियों का वन्ध करता है।
अणुस्सओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासए ॥३०॥ छाया - अनुत्सुक उदारेषु, यतमानः परिव्रजेत् ।
च-या मप्रमत्तः, स्पृष्ट स्तत्राधिषहेत् ॥ अनुवाद - साधु, उदार-मनोग्य, प्रिय शब्दादि विषयों में अनुसूख रहे-उत्सुकता न रखे । वह संयम के परिपालन में यत्नशील रहे । चर्या-भिक्षाचरी आदि क्रियाओं में अप्रमज्ञ-प्रमादशून्य रहे तथा परिसहों और उपसर्गों से आक्रान्त होता हुआ भी उन्हें सहन करे ।
टीका - किञ्च 'उराला' उदाराः शोभना मनोज्ञा ये चक्रवादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राभरणगीतगन्धर्वयानवाहनादयस्तथा आजैश्वर्यादयश्च एतेषूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नोत्सुकः स्यात्, पाठान्तरं
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