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धर्म अध्ययन भिक्षणशीलो भिक्षुः कुशीलो न भवेत्, न चापि कुशीलैः सार्धं 'संसर्ग साङ्गत्यंभजेत' सेवेत, तत्संसर्गदोषो द्विभावमिषयाऽऽह-"सुखरूपाः' सात गौरवस्वभावाः 'तत्र' तस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोपघातकारिण उपसर्गाः प्रादुष्यन्ति, तथाहि-ते कुशीला वक्तारो भवन्ति-कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्तादिके प्रक्षाल्यमाने दोषः स्यात् ?, तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणार्धा कर्म सान्निध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं धर्माधारं वर्तयेत्, उक्तं च - "अप्पेण बहुमेसेजा, एयं पडियलक्खणं" ....
छाया - अल्पेन बहुएषयेत् एवं पंडित लक्षणं ।। इति तथा "शरीरं धर्म संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात् स्रवते धर्मः पर्वतात्सलिलं यथा ॥१॥"
तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पघृतयश्च संयमेजन्तव इत्येवमादिकुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसत्त्वास्तत्रानुषजन्तीति 'विद्वान्' विवेकी 'प्रतिबुध्येत' जानीयात् बुद्धवा चापायरुपं कुशील संसर्ग परिहरेदिति ॥२८॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - नियुक्तिकार द्वारा पहले जो इस प्रकार कहा गया है कि पार्श्वस्थ अप्रसन्न तथा कुशील के साथ कभी परिचय नहीं करना चाहिये उस सम्बन्ध में सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं कि जिसका शील या आचरण कुत्सित-असत् या बुरा होता है, उसे कुशील कहा जाता है । वह इन पार्श्वस्य आदि में कोई भी है अर्थात् ये पार्श्वस्थ कुशील में आते हैं जो कुशील नहीं हैं उन्हें अकुशील कहा जाता है । भिक्षणशील भिक्षोपजीवीभिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करने वाला साधु कभी कुशील न बने तथा वह कुशीलों के साथ संसर्ग-साङ्गत्य या संगति भी न करे, कुशीलों के संसर्ग से दोषों का उद्विभाव-उत्पत्ति होती है । आगमकार ऐसा बतलाते हैं । कुशीलों की संगति सुखात्मक भोगों की इच्छा के रूप में उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, जो संयम को नष्ट करते हैं क्योंकि कुशील पुरुष कहते हैं कि प्रासुक-अचित जल से हाथ पैर तथा दन्त आदि प्रक्षालित करने में क्या दोष है ? शरीर के सहारे के बिना धर्म नहीं होता । इसलिये आधाकर्म-सदोष आहार का सेवन कर, खड़ाऊ, जूते तथा छाता धारण कर जिस किसी प्रकार से धर्म के आधारभूत इस शरीर की रक्षा करनी चाहिये । कहा है कि-यदि अल्प-थोड़े से दोष से अधिक लाभ प्राप्त होता है, तो उसे ले लेना चाहिये । यह विद्वान् का लक्षण है । बुद्धिमता का तकाजा है । शरीर धर्म संयुक्त है । अतः यत्नपूर्वक वह रक्षणीय है । जैसे पर्वत से जलस्रव होता है- पानी निकलता है, उसी तरह शरीर से धर्मस्रव होता है । कुशील व्यक्ति कहता है कि आजकल अल्प-कमशक्तियुत् संहनन-दैहिक संस्थान है, शरीरावस्था है तथा संयम में जीव अल्पधृति-थोड़ा धैर्य रखने वाले हैं । कुशील व्यक्ति का इस रूप में कथन श्रवण कर अल्पसत्व-अल्प आत्मबलयुक्त जीव उसके कथन में अनुपजित-संसक्त हो जाते हैं । अतः विवेक युक्त पुरुष यह जानकर अपायात्मक-आध्यात्मिक दृष्टि से विनाशकारी कुशील संसर्ग का अनाचरण युक्त पुरुषों की संगति का परित्याग करे ।
नन्नत्थ अंतरायणं, परगेहे ण णिसीयए । गामकुमारियं किहुं नातिवेलं हसे मुणी ॥२९॥ छाया - नान्यत्रान्तरायेण प रगेहे न निषीदेत् । ग्राम कुमारिका क्रीडां, नातिबेलं हसेन्मुनिः ॥
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