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धर्म अध्ययनं
वा न निश्रितोऽनिश्रित:-अप्रतिबद्धाः स्यात्, यत मानश्च - संयमानुष्ठाने परि-समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यमं कुर्वन्‘व्रजेत्’ संयमं गच्छेत् तथा 'चर्यायां' भिक्षादिकायां 'अप्रपत्तः स्यात्' नाहारादिषुरसगार्ध्यं विदध्यादिति, तथा 'स्पृष्टश्च' अभिद्रुतश्च परीषहो पसर्गैस्त त्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानो 'विषहेत्' सम्यक् सह्यादिति ॥३०॥
टीकार्थ सुन्दर और प्रिय विषय जो मन को आकृष्ट करते हैं उन्हें उदार कहा जाता है। शब्दादि विषयों में चक्रवर्ती सम्राट आदि के काम भोग, वस्त्र, अलंकार, गीत, गंधर्व - नृत्यादि मनोविनोद जनक ललित कलात्मक कार्य, यान- चढ़ने की सवारियाँ, वाहन सामान ढोने के गाड़े गाड़ियां, आज्ञापालक - सेवक वृन्द, ऐश्वर्य आदि उदार - मनोग्य या सुन्दर होते । उन्हें देखकर या उनके सम्बन्ध में सुनकर साधु उनमें उत्सुक न बने, उत्कण्ठा न रखे अथवा पाठान्तर के अनुसार साधु उनमें अनिश्रित- अप्रतिबद्ध रहे । वह मूल गुण और उत्तर गुणों में उद्यमशील रहता हुआ संयम का प्रयत्न पूर्वक परिपालन करे । वह भिक्षाचारी आदि साधु की चर्यायों में अप्रमत्तप्रमाद रहित रहे । वह भोजन आदि में लोलुपता न रखे । परिषहों और उपसर्गों से अभिद्भुत आक्रान्त पीड़ित होता हुआ वह अपने मन में दीनता न लाये किन्तु इनसे कर्मों की निर्जरा होती है, कर्म कटते हैं, यों मानता हुआ उन्हें भली-भाँति सहन करे ।
हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वुच्चमाणो न संजले । सुमणे अहिया सिज्जा, ण य कोलाहलं करे ॥ ३१ ॥
छाया हन्य मानो न कुप्येत्, उच्यमानो न संज्वलेत् । सुमना अधिषहेत, न च कोलाहलं कुर्य्यात् ॥
अनुवाद - यदि कोई साधु को हतप्रतिहत करें-मारे, पीटे, गाली आदि के रूप में अपशब्द कहे तो साधु संज्वलित- उत्तेजित न हो किन्तु प्रसन्नता के साथ इन्हें सहन करे । कोलाहल न करे ।
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टीका - परीषहोपसर्गाधिसहनमेवाधिकृत्याह-' हन्य मानो' यष्टि मुष्टिलकुटादिभिरपि हतश्च 'न कुप्येत्' न कोपवशगो भवेत्, तथा दुर्वचनानि 'उच्यमानः' आक्रुश्यमानो निर्भर्त्स्यमानो 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं वदेत्, न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात् किंतु सुमनाः सर्वं कोलाहलमकुर्वन्नधिहेतेति ॥३१॥
टीकार्थ - सूत्रकार प्रतिसहों और उपसर्गों को सहने के सन्दर्भ में कहते हैं यदि कोई साधु को लाठी, मुक्के, डण्डे आदि से हत्-ताडित करे तो साधु उस पर क्रुद्ध न हो। कोई उसे दुर्वचन- कठोर वचन कहे । उसके साथ गाली गलौच न करे। उसकी निर्भत्सना - तिरस्कार करे तो वह प्रतिकूल वचन न कहे तथा अपने मन में अन्यथा भाव-बुरे विचार न लाये, किन्तु प्रशान्त मन रहे । कोलाहल न करता हुआ, यह सब सहन करे ।
लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥३२॥
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