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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज्ज मम्मयं । मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे ॥२५॥
छाया भाषमाणो न भाषेत, नैवाभिलपेन्मर्मगम् ।
मातृस्थानं विवर्जयेद्, अनुचिन्त्य व्यागृणीयात् ॥
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अनुवाद जो मुनि भाषासमित भाषा समिति से युक्त है, वह धर्म का अभिभाषण करता हुआ भी, उपदेश करता हुआ भी न बोलने वाले के सदृश है। जिससे किसी के हृदय को चोट पहुँचे, दुःख हो, साधु ऐसा वाक्य न बोले । वह कपटपूर्ण वचन नहीं बोले । जो भी बोले सोच विचार कर बोले ।
टीका यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एवस्यात्, उक्तं च"वयणविहत्तीकुसलोवओगयं बहुविहं वियाणंतो । दिवसंपि भासमाणो साहू वय गुत्तयं पत्तो ॥ १ ॥ " छाया - वचनविभक्ति कुशलो वचोगतं बहुविधं विजानम् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्वचनगुप्तिसम्प्रातः ॥ १ ॥
यदि वा यत्रान्यः कश्चिद्रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एव सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्नभाषेत, तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न 'वफेज्ज' त्ति नाभिलषेत्, यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषेतेति भावः यदिवा 'मामकं' ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणोऽन्यदा वा 'न वंफेज्जति' नाभिलषेत्, तथा 'मातृस्थानं' मायाप्रधानं वचो विवर्जयेत्, इदमुक्तं भवति - परवञ्चनबुद्धया गूढचारप्रधानो भाषमाणोऽभाषमाणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति, यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्, तदुक्तम्
"पृव्विं बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे" इत्यादि ॥ २५ ॥
छाया
पूर्वं बुद्धयाप्रेक्षयित्वा पश्चाद् वाक्यमुदाहरेत ।
टीकार्थ - जो साधु भाषासमित है-भाषा समिति का पालन करता है, वह धर्मकथा का - धार्मिक सिद्धान्तों का उपदेश करता हुआ भी अभाषक नहीं बोलने वाले के समान ही है। जैसे कहा गया है-जो साधु वचनविभक्ति में कुशल है, वाणी के संदर्भ में सूक्ष्मतया विशेष ज्ञाता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचन गुप्ति से युक्त ही है । अथवा जहाँ कोई रत्नाधिक-संयम जीवितव्य में वरिष्ठ पुरुष बोल रहा हो, उसके बीच में ही, "मैं सश्रुतिक- उत्तम विद्वान हूँ, इस अभिमान से युक्त होकर साधु भाषण न करे । वह ऐसा न बोले, जो मर्मान्तक हो, मर्म को पीड़ित करने वाला हो । कहने का अभिप्राय यह है कि असत्य हो या सत्य हो, जिस वचन के बोलने से किसी के मन में पीड़ा पैदा हो, विवेकयुक्त पुरुष वैसा न बोले । अथवा साधु भाषण करता हुआबोलता हुआ पक्षपातपूर्ण-किसी एक का पक्ष लेते हुए वाणी न बोले । वह कपट एवं छलयुक्त भाषण न करे। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे की वञ्चना करने की बुद्धि से, उसे ठगने के इरादे से वह गूढाचार प्रधानतथ्य को छिपाकर बात न करे ।
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वह बोलते समय या अन्य समय माया, कपट या छलपूर्ण व्यवहार न करे। जब साधु बोलना चाहे, तो यह मन में उहापोह करे, चिन्तन करे कि यह वचन अपने या अन्य के या दोनों के लिए बाधक बाधाजनक
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