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## The Sutra Kritanga Sutra
**Verse 25:**
He who speaks, does not speak, nor does he desire to speak what is harmful. He avoids speaking what is deceptive, and speaks only after careful consideration.
**Commentary:**
A Muni who is skilled in the art of speech, even while delivering a discourse on Dharma, is like one who does not speak. He does not utter words that cause pain or sorrow to anyone. He does not speak deceitfully. He speaks only after careful thought and consideration.
**Explanation:**
The verse emphasizes the importance of mindful speech in Jainism. A true practitioner of Dharma should avoid speaking words that are harmful, deceptive, or motivated by self-interest. Instead, they should speak with careful consideration, ensuring that their words are beneficial and truthful.
**Further Explanation:**
The commentary elaborates on the verse, explaining that a Muni who is skilled in speech should avoid speaking in a way that:
* **Causes pain or sorrow:** They should not utter words that hurt others' feelings or cause them distress.
* **Is deceptive:** They should not speak with the intention to deceive or mislead others.
* **Is motivated by self-interest:** They should not speak in a way that benefits themselves at the expense of others.
Instead, they should speak with the intention of promoting Dharma and helping others. They should carefully consider the impact of their words before speaking, ensuring that they are beneficial and truthful.
**The commentary also highlights the importance of avoiding:**
* **Speaking when someone else is speaking:** A Muni should not interrupt or try to overshadow others' speech.
* **Speaking with arrogance:** They should not boast about their knowledge or wisdom.
* **Speaking with the intention to deceive:** They should not use their words to manipulate or exploit others.
The commentary concludes by emphasizing the importance of careful consideration before speaking. A Muni should always think about the potential consequences of their words before uttering them.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज्ज मम्मयं । मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे ॥२५॥
छाया भाषमाणो न भाषेत, नैवाभिलपेन्मर्मगम् ।
मातृस्थानं विवर्जयेद्, अनुचिन्त्य व्यागृणीयात् ॥
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अनुवाद जो मुनि भाषासमित भाषा समिति से युक्त है, वह धर्म का अभिभाषण करता हुआ भी, उपदेश करता हुआ भी न बोलने वाले के सदृश है। जिससे किसी के हृदय को चोट पहुँचे, दुःख हो, साधु ऐसा वाक्य न बोले । वह कपटपूर्ण वचन नहीं बोले । जो भी बोले सोच विचार कर बोले ।
टीका यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एवस्यात्, उक्तं च"वयणविहत्तीकुसलोवओगयं बहुविहं वियाणंतो । दिवसंपि भासमाणो साहू वय गुत्तयं पत्तो ॥ १ ॥ " छाया - वचनविभक्ति कुशलो वचोगतं बहुविधं विजानम् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्वचनगुप्तिसम्प्रातः ॥ १ ॥
यदि वा यत्रान्यः कश्चिद्रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एव सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्नभाषेत, तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न 'वफेज्ज' त्ति नाभिलषेत्, यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषेतेति भावः यदिवा 'मामकं' ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणोऽन्यदा वा 'न वंफेज्जति' नाभिलषेत्, तथा 'मातृस्थानं' मायाप्रधानं वचो विवर्जयेत्, इदमुक्तं भवति - परवञ्चनबुद्धया गूढचारप्रधानो भाषमाणोऽभाषमाणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति, यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्, तदुक्तम्
"पृव्विं बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे" इत्यादि ॥ २५ ॥
छाया
पूर्वं बुद्धयाप्रेक्षयित्वा पश्चाद् वाक्यमुदाहरेत ।
टीकार्थ - जो साधु भाषासमित है-भाषा समिति का पालन करता है, वह धर्मकथा का - धार्मिक सिद्धान्तों का उपदेश करता हुआ भी अभाषक नहीं बोलने वाले के समान ही है। जैसे कहा गया है-जो साधु वचनविभक्ति में कुशल है, वाणी के संदर्भ में सूक्ष्मतया विशेष ज्ञाता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचन गुप्ति से युक्त ही है । अथवा जहाँ कोई रत्नाधिक-संयम जीवितव्य में वरिष्ठ पुरुष बोल रहा हो, उसके बीच में ही, "मैं सश्रुतिक- उत्तम विद्वान हूँ, इस अभिमान से युक्त होकर साधु भाषण न करे । वह ऐसा न बोले, जो मर्मान्तक हो, मर्म को पीड़ित करने वाला हो । कहने का अभिप्राय यह है कि असत्य हो या सत्य हो, जिस वचन के बोलने से किसी के मन में पीड़ा पैदा हो, विवेकयुक्त पुरुष वैसा न बोले । अथवा साधु भाषण करता हुआबोलता हुआ पक्षपातपूर्ण-किसी एक का पक्ष लेते हुए वाणी न बोले । वह कपट एवं छलयुक्त भाषण न करे। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे की वञ्चना करने की बुद्धि से, उसे ठगने के इरादे से वह गूढाचार प्रधानतथ्य को छिपाकर बात न करे ।
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वह बोलते समय या अन्य समय माया, कपट या छलपूर्ण व्यवहार न करे। जब साधु बोलना चाहे, तो यह मन में उहापोह करे, चिन्तन करे कि यह वचन अपने या अन्य के या दोनों के लिए बाधक बाधाजनक
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