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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीकार्थ
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उपानह-काष्टपादुका धारण करना, धूप के आतप आदि के निवारण हेतु धूप से बचने के लिए छाता लगाना, नालिका द्यूत क्रीडा करना, मोर के पंख आदि से बने हुए पंखे से हवा लो एवं हिंसा जनक पारस्परिक क्रिया आदि में संलग्न रहना, ये सब संसार भ्रमण - आवागमन के कारण हैं। यह जानकर साधु इनका त्याग करे ।
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छाया
उच्चारं
पासवणं, हरिएसु ण करे मुणी । वियडेण वावि साहु, णावमज्जे (यमेज्जा ) कवाइवि ॥ १९ ॥
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उच्चारं प्रस्त्रवणं हरितेषु न कुर्य्यान्मुनिः । विकटेन वाऽपि संहृत्य, नाचमेत कदाचिदपि ॥
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अनुवाद - मुनि हरी वनस्पति युक्त स्थान में मल प्रश्रवण त्याग रूप शौच क्रिया न करे । बीज आदि को दूरकर अचित जल से भी आचमन न करे ।
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टीका तथा उच्चारप्रत्रणादिकां क्रियां हरितेषूपरि बीजेषु वा अस्थिण्डिले वा 'मुनिः' साधुर्नकुर्यात्, तथा 'विकटेन' विगतजीवेनाप्युदकेन 'संहृत्य' अपनीय बीजानि हरितानि वा 'नाचमेत' न निर्लेपनं कुर्यात्, किमुताविकटे नेतिभावः ॥ १९ ॥
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टीकार्थ विवेकशील मुनि हरी वनस्पति तथा बीज आदि के ऊपर अनुपयुक्त स्थान में मल मूत्र का त्याग न करे । बीज हरी वनस्पति आदि हटाकर भी वह वैसा न करे । अचित जल से भी आचमन न करे ।
परमत्ते . परवत्थं
अन्नपाणं, अचेलोऽवि
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ण भुंजेज कयाइवि ।
तं विजं परिजाणिया ॥२०॥
छाया परामत्रे ऽन्नपानं, न भुञ्जीत कदाचिदपि ।
परवस्त्र मचेलोऽपि तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥
अनुवाद - मुनि परामत्र - दूसरे के गृहस्थ के पात्र में आहार न करे, न जल का सेवन करे । वस्त्र न भी हों तो वह गृहस्थ के वस्त्र न पहने । ये सब मुनित्त्व के मुनि धर्मं के प्रतिकूल हैं । विवेकशील मुनि यह जानते हुए इसका परित्याग करे ।
टीका - किञ्च परस्य गृहस्थास्यामत्रं - भाजनं परामत्रं तत्र पुरः कर्मपश्चात्कर्मभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भावाच्च अन्नं पानं च मुनिर्न कदाचिदपि भुञ्जीत, यदिवा - पतद्ग्रहधारिणश्छिद्रपाणे : पाणिपात्रं परपात्रं, यदिवा - पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेर्जिनकल्पिकादेः पतद्ग्रहः परपात्रं तत्र संयतविराधनाभयान्न भुञ्जीत तथा परस्य गृहस्थस्य वस्त्रं परवस्त्रं तत्साधुरचेलोऽपिसन् पश्चात्कर्मादिदोषभयात् हृतन - ष्टादिदोषसम्भवाच्च न बिभृयात्, यदिवा - जिनकल्पिकादिकोऽचेलो भूत्वा सर्वमपि वस्त्रं परवस्त्रमिति कृत्वा न बिभृयाद्, तदेतत्सर्वं परपात्रभोजनादिकं संयमविराधकत्वेन ज्ञपरिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥२०॥ तथा
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