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धर्म अध्ययनं हिंसा करते हैं, वे सभी जीवों के उपकारी-अपकार, नाश करने वाले हैं । अतः जीवों के साथ उनका वैर बढ़ता है । यह आगे की गाथा का क्रिया पद है । ब्राह्मण से जो शूद्र स्त्री में उत्पन्न होता है, वह निषाद कहा जाता है । ब्राह्मण से वैश्य स्त्री में जो पैदा होता है उसे अम्बष्ठ कहा जाता है । निषाद से अम्बष्ठ जाति की स्त्री में जो उत्पन्न होता है, उसे वोक्कस कहा जाता है। मांस हेतु जो मृग एवं हाथी की एषणा करते हैं ढूंढते है, वे व्याघ्र एवं हस्तितापस ऐषिक कहलाते हैं । अथवा जो अपने आहार हेतु कन्द मूल आदि ढूंढते हैं, अथवा जो दूसरे पाखण्डी जन नाना प्रकार के उपायों से भक्ष्य-भोज्य पदार्थ तथा विषय साधन, भोग के उपकरण ढूंढते हैं, वे सब ऐषिक कहे जाते हैं । कलोपजीवि-जो कलाओं द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं, वे माया प्रधान वैश्य या शूद्र, कृषि करने वाले एवं अहीर जाति के लोग पृथक-पृथक नामों से पुकारे जाते हैं ॥२॥ :
जो चारों ओर से ग्रहण किया जाता है, लिया जाता है वह परिग्रह कहलाता है । द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य, हिरण्य तथा स्वर्ण आदि में ममत्व रखना परिग्रह है । जो प्राणी परिग्रह में निविष्ट या लोलुप होते हैं, आरम्भ समारम्भ में आसक्त रहते हैं, जिसके सम्बन्ध में पूर्व गाथा में उल्लेख हुआ है, उनके पाप-असातावेदनीय कर्म की अत्यन्त वृद्धि होती है । वे सैंकड़ों जन्मों में भी उन कर्मों का नाश नहीं कर पाते, 'वेरं तेसिं पवटुंइ' कहीं कहीं ऐसा पाठ मिलता है । इसका आशय यह है कि जो जिस प्रकार, जिस प्राणी का उपमर्द-व्यापादन करता है, वह उसी तरह सैकड़ों बार संसार में दुःख भोगता है । जमदग्नि और कृतवीर्य्य आदि की ज्यों पुत्रपौत्रों तक उनका वैर बढ़ता जाता है । ऐसा क्यों होता है ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं-वे काम प्रवृत्तभोग लोलुप, आरम्भ पुष्ट-जीवों के आरम्भ समारम्भ, घात आदि में संलग्न है । अतः एव वे काम सम्भृतविषयासक्त तथा आरम्भमिश्रित-आरम्भ समारम्भ संलग्न परिग्रह संनिविष्ट-परिग्रह से बद्ध जीव दुःख जनक अष्ट विध कर्मों का अपगम नहीं कर सकते ॥३॥
आघाय किच्चमाहेउं, नाइओ विसएसिणो ।
अन्ने हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मेहिं किच्चती ॥४॥ छाया - आघातकृत्यमाधातुं, ज्ञातयो विषयैषिणः ।
अन्ये हरन्ति तद् वित्तं, कर्मी कर्मभिः कृत्यते ॥ अनुवाद - ज्ञातिजन-स्वजन-पारिवारिक वृन्द, विषयैषी-सांसारिक सुख एवं धन के लोभी होते हैं, वे अपने मृत पारिवारिक के दाह संस्कार आदि मरण क्रिया करने के अनन्तर उसका धन हर लेते हैं । पाप कर्म पूर्वक जिसने धन का संचय किया वह मृत पुरुष एकाकी अपने पाप का फल भोगता है।
टीका - किञ्चान्यत्-आहन्यन्ते-अपनीयन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यस्मिन् स आघातो-मरणं तस्मै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलाञ्जलिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं तदाधातुम्-आधाय कृत्वापश्चात् 'ज्ञातयः' स्वजनाः पुत्रकलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूताः?-विषयानन्वेष्टुं शीलं येषां तेऽन्येऽपि विषयैषिकाः सन्तस्यस्य दुःखार्जितं 'वित्तं' द्रव्यजातम् 'अपहरन्ति' स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम् -
"तत स्तेनार्जितैर्द्रव्यैदार श्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन ! हृष्टास्तुष्टा ह्यलङ्कृता ॥१।"
स तु द्रत्यार्जनपरायणः सावद्यानुष्ठानवान्कर्मवान् पापी स्वकृतैः कर्मभिः संसारे 'कृत्यते' छिद्यते पीड्यत इतियावत् ॥४॥ स्वजनाश्च तद्व्योपजीविनस्तत्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह -
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