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धर्म अध्ययन टीकार्थ - जिस मनुष्य में कषाय विद्यमान रहते हैं उसका पंच महाव्रत धारण करना निष्फल-व्यर्थ है । अतः पंच महाव्रत को सफल-सार्थक बनाने हेतु कषाय का निरोध-अवरोध करना चाहिए । सूत्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हैं । जिस द्वारा मनुष्य की क्रिया वक्रता-टेढापन प्राप्त करती है, सरलता को छोड़कर कुटिलता पूर्ण बन जाती है, उसे पलिकुन्चन कहते हैं । यह माया का नाम है । जिस द्वारा आत्मा सर्वत्र झुक जाती है, आकृष्ट हो जाती है, यह भजन कहा जाता है । यह लोभ का वाचक है जिसके उदित होने पर आत्मा सत् असत् के विवेक से विवर्जित होकर स्थडिंल के सदृश हो जाती है, मलिन हो जाती है, वह स्थडिंल कहा जाता है । ये क्रोध का नाम है जिसके होने से आत्मा जाति आदि के दर्प से उद्धत होकर उत्तान होती है। अहंकार से उद्धत बन जाती है । उसे उच्छाय कहा जाता है । यह मान का सूचक है । मान शब्द व्याकरण के अनुसार पुल्लिंग में है किन्तु छांदस या आर्ष प्रयोग होने के कारण यहाँ नपुंसक लिंग में आया है । मद के जाति आदि बहुत से स्थान है इसलिए यहाँ बहुवचन का प्रयोग हुआ है । यहाँ आया हुआ चकार स्वगत भेद के सरांचक हेतु है अथवा वह समुच्य के अर्थ में है । यहाँ धूनय-धून डालो, समाप्त कर डालो, या त्याग दो, इस क्रिया का प्रत्येक के साथ योजन करना चाहिए, जोड़ना चाहिए । जैसे माया का धूनन करो, उसे त्यागो, लोभ को त्यागो इत्यादि । यहाँ माया, लोभ, क्रोध और मान इस प्रकार जो क्रमोलंघन हुआ है-ये यथाक्रम नहीं आये हैं इसका कारण सूत्र की अपनी विचित्रता, विविधता या विशेषता के कारण दोष नहीं है, अथवा राग दुष्त्याज्य है-उसे छोड़ना बहुत कठिन है तथा लोभ माया पूर्वक ही होता है-पहले माया होती है। फिर लोभ होता है । अतः शुरु में माया या लोभ का उपन्यास-निर्देश किया गया है । कषायों के त्याम के सन्दर्भ में सूत्रकार भी बतलाते हैं । तदनुसार संसार में माया आदि कर्मों के बंध के कारण है । विवेकी पुरुष ये जानकर इनका परित्याग करें।
धोयणं रयणं चेव, बत्थीकम्मं विरयेण । वमणंजण पलीमंथं, तं विजं परिजाणिया ॥१२॥ छाया - धावनं रञ्चनञ्चैव, बस्तिकर्म विरेचनम् ।
वमनाञ्जनं पलिमन्थं, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अनुवाद - हाथ, पैर आदि का प्रक्षालन, रंजन, वस्तिकर्म, विरंचन वामन तथा नेत्राजंन आदि ये सब कार्य संयम को नष्ट कर डालते हैं । अतः ज्ञानी पुरुष ये जानकर इनका त्याग करे ।
टीका - पुनरप्युत्तरगुणाधिकृत्याह-धावनं-प्रक्षालनं हस्तपादवस्त्रादे रञ्जनमपि तस्यैव, चकारः समुच्चयार्थः, एवकारोऽव धारणे, तथा वस्तिकर्म-अनुवासना रूपं तया 'विरेचनं' निरुहात्मकमधोविरेको वा वमनम्-ऊर्ध्वविरेकस्तथाऽञ्जनं नयनयोः, इत्येवमादिकमत्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत् 'संयमपलिमन्थकारि' संयमोपधातरुपं तदेतद्धिद्वान् स्वरूपतस्यद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत् ॥१२॥ अपिच - .
टीकार्थ - पुनःश्च सूत्रकार उत्तर गुणों को उदिष्ट कर कहते हैं कि हाथ पैर वस्त्र आदि का प्रक्षालनधोना, रंजन-रंगना, बस्तीकर्म-एनीमा लेना, विरेचन-जुलाब लेना, वामन-औषधि आदि लेकर उल्टी करना अंजन
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