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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् आँख में सुरमा आदि डालना, तथा अन्य भी शरीर संस्कार, देह सज्जा आदि संयम के उपद्यातक-विनाशक हैं । विवेकशील मुनि उनके स्वरूप तथा विपाक - फल को जानकर उनका परित्याग करें ।
गंधमल्लसिणाणं च दंत पक्खालणं परिग्गहित्थिकम्मं च, तं विज्जं
छाया गन्धमाल्यस्नानानि दन्त प्रक्षालनं तथा ।
परिग्रहस्त्रीकर्माणि तद् विद्वान् परिजानीयात् ॥
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तहा । परिजाणिया ॥ १३॥
अनुवाद - गंध-शरीर में सुगन्धित पदार्थ लगाना, माल्य- पुष्प माला धारण करना, स्नान करना, दंत प्रक्षालन करना, परिग्रह रखना हस्त कर्म करना - ये पाप के कारण हैं । विवेकशील मुनि ये जानकर इनसे पृथक् रहे, इनका त्याग करें ।
टीका ‘गन्धाः' कोष्ठपुटादयः ‘माल्यं' जात्यादिकं 'स्नानं च ' शरीरप्रक्षालनं देशतः सर्वतश्च, तथा ‘दन्तप्रक्षालनं’ कदम्बकाष्ठादिना तथा 'परिग्रहः' सचित्तादेः स्वीकरणं तथा स्त्रियो- दिव्यमानुषतैरश्चयः तथा 'कर्म' कर्मानुष्ठानं वा तदेतत्सर्वं कर्मोपादानतया संसारकारणत्वेन परिज्ञाय विद्वान परित्यजेदिति ॥१३॥
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टीकार्थ – कोष्टपूट आदि सुगन्धित पदार्थ, चमेली आदि के पुष्पों की माला, स्नान - शरीर के कुछ भाग को या सारे को प्रक्षालित करना-धोना कदम्ब आदि की टहनी से दातों का प्रक्षालन करना, सचित्त पदार्थग्रहण, स्वीकार करना, देव, मानव या तिर्यंच जाति की स्त्रियों के साथ अब्रह्मचर्य सेवन करना तथा हस्तकर्म करना अथवा ओर भी जो सावद्य पापयुक्त अनुष्ठान कार्य हैं उन्हें करना, ये सब कर्म बंध के कारण हैं । इनसे संसार में जन्म मरण का चक्र चलता रहता है। विवेकशील मुनि यह जानकर इनका परित्याग करे ।
उद्देसियं कीयगडं, पामिच्चं चेव पूयं अणेसणिज्जं च, तं विज्जं
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आहडं । परिजाणिया ॥ १४॥
छाया उद्देशिकं क्रीतक्रीतं पामित्यं चैवाहृतम् । पूय मनेषणीयञ्च तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥
अनुवाद - उद्देशिक- साधु को देने हेतु जो आहार - भोजन आदि तैयार किया गया है जो क्रीत, क्रय किया गया है, खरीदा गया है, पामित्य - साधु को देने हेतु जो अन्य किसी से उधार लिया गया हो, आहृतजो गृहस्थों द्वारा लाया गया हो पूय-अशुद्ध जो आधाकर्मी आहार से मिश्रित हो तथा अनेषणीय- किसी भी कारण से दोषयुक्त या अशुद्ध हो, विवेकशील साधु उसे संसार बढ़ने का कारण जानकर त्यागें ।
टीका - किञ्चान्यत् - साध्वाद्युद्देशेन यद्दानाय व्यवस्थाप्यते तदुद्देशिकं, तथा क्रीतं क्रयस्तेन क्रीतं गृहीतं क्रीतक्रीतं 'पामिच्वं 'त्ति साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद्गृह्यते तत्तदुच्यते चकारः समुच्चयार्थः एवकारोऽवधारणार्थः, साध्वर्थं यद्गृहस्थेनानीयते तदाहृतं, तथा 'पूय' मिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूतिभवति, किं बहुनोक्तेन ? यत् केनचिद्दोषेणानेषलीयम् - अशुद्धं तत्सर्वं विद्वान् परिज्ञाय संसारकारणतया निस्पृहः सन् प्रत्याचक्षीतेति ॥१४॥
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