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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीकार्थ - जिसमें प्राणियों के दस प्रकार के प्राणों का आहनन या विनाश होता है, उसे आघात कहते हैं । वह मरण है । उसके होने के अनन्तर जो अग्नि संस्कार, जलाजंली प्रदान तथा पितृपिण्ड आदि कार्य किए जाते हैं, उन्हें आघात कृत्य कहा जाता है । उन्हें कर उसके पुत्र, स्त्र स्त्री, भतीजे आदि पारिवारिक जन जो सांसारिक सुख लिप्सु होते. हैं, कष्टपूर्वक उस द्वारा अर्जित किए हुए धन को हर लेते हैं । जैसा किसी गुरु द्वारा किसी राजा को उदिष्ट कर कहा गया है कि-हे राजन् ! जिसने धन का अर्जन किया, स्त्रियों से विवाह किया, जिनका परिरक्षण किया, उसके मर जाने के बाद दूसरे लोग हर्षित परितुष्ट तथा आभूषणों से सुसज्जित होकर उसके धन व स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हैं । किन्तु सावद्य-पापयुक्त कर्म द्वारा धन का अर्जन करने वाला वह मृत पापी पुरुष अपने किए हुए कर्मों के फलस्वरूप संसार में काटा जाता है, छेदन-भेदन आदि के रूप में तरह-तरह से यातनाएं पाता है । ॥४॥
उसके द्रव्य का भोग करने वाले पुरुष उसके लिए शरणप्रद नहीं होते । ऐसा दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं ।
माया पिता बहुसा भाया, भजा पुत्रा य ओरसा । नालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥५॥ छाया - माता, पिता, स्नुषा भ्राता, भार्या पुत्राश्चौरसाः । .
नालं ते तव त्राणाय, लप्यमानस्य स्वकर्मणा ॥ अनुवाद - अपने द्वारा कृत पापों के परिणाम स्वरूप लुप्यमान-पीड्यमान कष्ट पाते हुए प्राणी को उसके माता-पिता पतोहु-पुत्र वधू, भाई, भार्या और सपुत्र आदि कोई भी त्राण नहीं दे सकते ।
____टीका - 'माता' जननीं 'पिता' जनकः 'स्नुषा' पुत्रवधूः 'भ्राताः' सहोदरः तथा 'भार्या' कलत्रं पुत्राश्चौरसाः -स्वनिष्पादिता एते सर्वेऽपि मात्रादयो ये चान्ये श्वशुरादयस्ते तव संसारचक्रवाले स्वकर्मभिर्विलुप्यमानस्य त्राणाय 'नालं' न समर्थाभवन्तीति, इहापि तावन्नेमे त्राणाय किमुतामुत्रेति, दृष्टान्तश्चात्र काल सौकरिक सुतः सुलसनामा अभयकुमारस्य सखा, तेन महासत्त्वेन स्वजनाभ्यर्थितेनापि न प्राणिष्वपकृतम्, अपि त्यात्मन्येवेति ॥५॥
__टीकार्थ - जन्म देने वाली माता-पिता, पुत्र वधू, सगा भाई, अपनी पत्नी एवं अपने और सुपुत्र ये सभी तथा श्वसुर आदि अन्य सभी संबंधी अपने द्वारा कृत कर्मों से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हें संसार में त्राण दे सकने में, तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । जब वे इस लोक में भी तुम्हें दुःख से त्राण नहीं दे सकते, बचा नहीं सकते तो परलोक में त्राण देने की आशा ही कहाँ है । इस विषय में काल सौकरिक नामक कसाई के पुत्र सुलस का दृष्टान्त है । वह अभयकुमार का सखा-मित्र था । उसके पारिवारिक जनों ने प्राणी वध हेतु उसकी बहुत अभ्यर्थना की, जोर दिया, किन्तु उसने प्राणियों का जरा भी अपकार नहीं किया, हिंसा नहीं की, किन्तु अपने ही हाथ पर कुल्हाड़ी से प्रहार कर लिया ।
एयमटुं निम्ममो
सपेहाए, निरहंकारो,
परमाणु गामियं ।
चरेभिक्खू जिणाहियं ॥६॥ 418