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श्री वीर्याध्ययन अनुवाद - प्रहरण जिससे प्रहार किया जाता है, उसे शस्त्र-हथियार कहते हैं । तलवार आदि का उनमें समावेश है । विद्याधिष्ठित, मन्त्राधिष्ठित, देव कर्मकृत तथा दिव्य क्रिया से निष्पंद होता है, तब अस्त्र होता है। वह पार्थिव, वारुण, आग्नेय, वायव्य तथा इनमें से किन्हीं दो से मिश्रित यों पाँच प्रकार का होता है ।
माइणो कट्ट माया य, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगबिभत्ता, ' आयसायाणुगामिणो ॥५॥ छाया - मायिनः कृत्वा मायाश्च, कामभोगान् समारम्भन्ते ।
हन्तारच्छेत्तारः प्रकर्त्तयितार आत्मसातानुगामिनः ॥ अनुवाद - मायावी-छली पुरुष, माया-छलकपट द्वारा दूसरों का धन आदि हरण कर काम भोगों का सेवन करते हैं । अपना सुख चाहने वाले वे, प्राणियों का हनन-मारना, छेदन-छिन्न भिन्न करना, करतनकाटना, चीरना आदि करते हैं ।
टीका - 'माया' परवञ्चनादि(त्मि)का बुद्धिः सा विद्यते येषां ते मायाविनस्त एवम्भूता मायाः - परवञ्चनानि कृत्वा एक ग्रहणे तज्जातीयग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः 'कामान्' इच्छारुपान् तथा भोगांश्च शब्दादि विषयरूपान् ‘समारभन्ते' सेवन्ते पाठान्तरं वा 'आरंभाय तिवट्टइ' त्रिभिः मनोवाक्कायैरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापादयन् बध्नन् अपध्वंसयन् आज्ञापयन् भोगार्थी वित्तोपार्जनार्थं प्रवर्तत इत्यर्थः, तदेवम् 'आत्मसातानुगामिनः' स्वसुखलिप्सवो दुःखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषु गृद्धाः कषाय कलुषितान्तरात्मानः सन्त एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा-'हन्तारः' प्राणित्यापादयितारस्तथा छेत्तारः कर्णनासिकादेस्तथा प्रकर्तयितारः पृष्ठादरा देरिति ॥५॥ तदेतत्कथमित्याह -
टीकार्थ - वह बुद्धि जिससे प्रवंचना की जाती है, दूसरों को ठगा जाता है, माया कही जाती है। जिनमें वह होती है वे पुरुष मायावी-छली या कपटी कहलाते हैं । माया द्वारा अन्यों को ठगकर वैसे कपटी पुरुष सांसारिक भोगों का सेवन करते हैं । एक के ग्रहण से तज्जातीय-उससे सम्बद्ध ओर भी गृहित हो जाते हैं इसलिए यहाँ मायावी के साथ-साथ क्रोधी, मानी-अभिमान युक्त, लोभी-धनादि के लोभ में ग्रस्त जीव भी आ जाते हैं वे पूर्वोक्त रूप में शब्दादि विषयों का सेवन करते हैं । ऐसा समझ लेना चाहिए । वे आरंभाय तिवट्टइ ऐसा पाठान्तर भी प्राप्त होता है, जिसका यह तात्पर्य है कि भोगार्थी विषय भोग को चाहने वाला पुरुष मन, वचन तथा शरीर इन तीनों द्वारा आरम्भ, हिंसा आदि में वर्तनशील रहता-लगा रहता है । वह बहुत से प्राणियों को मारता हुआ, बांधता हुआ, उनका अपध्वंस-विनाश करता हुआ, उनको अपनी आज्ञा में प्रवृत्त करता हुआ-उनसे मनचाहे काम लेता हुआ, धनोपार्जन में प्रवृत्त-तत्पर रहता है । अपनी सुख सुविधा के अभिलाषी, दुःख क्लेश के द्वेषी विषय गृद्ध-भोग लोलूप तथा कषायों से कलुषित अन्त:करण युक्त पुरुष इस प्रकार पाप कर्म करते हैं वे प्राणियों का व्यापादन करते हैं । उनके कान, नासिका आदि का छेदन करते हैं, काट देते हैं उनके पेट पीठ आदि को चीर डालते हैं।
वे ये सब किस प्रकार करते हैं सूत्रकार प्रतिपादन कर रहे हैं ।
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