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वीतराग
- श्री वीर्याध्ययनं . 'किं सक्का वोत्तुं जे सरागधम्मंमि कोइ अकसायी । संतेवि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो ॥१॥ छाया- किं शक्यावक्तुं यत्सरागधर्मे कोऽप्य कषायः। सतोऽपि यः कषायान्निगृण्हाति सोऽपि तत्तुल्यः।।२।।
स च किम्भूतो भवतीति दर्शयति-बन्धनात्-कषायात्मकान्मुक्तो बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनत्वं तु कसायाणां कर्मस्थिति हेतुत्वात्, तथा चोक्तम्-"बंधट्ठिई कसायवसा" कषायवशात् इति, यदिवा बन्धनोन्मुक्त इव बन्धनोन्मुक्तः तथाऽपर : 'सर्वत:' सर्वप्रकारेण सूक्ष्मबादररूपं 'छिन्नम्' अपनीतं 'बन्धन' कषायात्मकं येन स छिन्नबन्धनः, तथा 'प्रणुद्य' प्रेर्य ‘पापं' कर्मकारणभूतान्वाऽऽ श्रवानपनीय शल्यवच्छल्यं-शेषकं कर्म तत् कृन्ततिअपनयति अन्तशो-निरवशेषतो विघटयति, पाठान्तरं वा 'सल्लं कंतई अप्पणो' त्ति शल्यभूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति-छिनत्तीत्यर्थः ॥१०॥ यदुपादायशल्यमपनयतितद्दर्शयितुमाह -
टीकार्थ - जो पुरुष मुक्ति प्राप्त करने में योग्य होता है, वह भव्य कहलाता है । उसे द्रव्य भी कहते हैं । पाणीनिय व्याकरण में आये 'द्रव्यंच-भव्ये' सत्र द्वारा भव्य के अर्थ में द्रव्य पद का प्रयोग सिद्ध है अथवा
विरहित-पृथक् होने के कारण जो पुरुष द्रव्यभूत-कषाय रहित है, वह द्रव्य है। अथवा जो पुरुष
। अल्पकषाय है, वह द्रव्य कहा जाता है । कहा गया है सराग धर्म में अवस्थित-छठे, सातवें गण स्थान में विद्यमान
विद्यमान कोई पुरुष कषाय रहित है । क्या ऐसा कहा जा सकता है ? उत्तर में बतलाया गया है कि कषाय के होने पर भी जो पुरुष उनको उदय में आने से रोके रहता है वह भी वीतराग के सदश ही है । उस अपेक्षा से कषाय रहित है । वह पुरुष कैसा होता है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि वह पुरुष कषायात्मक बन्धन से मुक्त है क्योंकि कषायों का बन्धनत्व तभी होता है जब वे कर्मस्थिति के हेतु हों । कहा गया है कि कर्मों के बन्धन की स्थिति कषाय के वश में है ।
अथवा वह पुरुष बन्धन मुक्त पुरुष के सदृश होने के कारण बन्धन मुक्त-बन्धन से छूटा हुआ है । वह दूसरे सूक्ष्म एवं स्थूल कषायों का छेदन--अपनयन करने के कारण छिन्न बन्धन है । उसके बन्धन छिन्न बन्धन हैं । पापों के कारण भूत आश्रवों का अपनयन का शल्य-कांटे की ज्यों अवशिष्ट कर्मों को निशेष रूप में काट डालता है, सम्पूर्णत: नष्ट कर देता है । यहाँ 'सल्लं कन्तइ अप्पणो' शल्यं किन्तति आत्मनः ऐसा पाठान्तरं प्राप्त होता है ।
इसका अभिप्राय यह है कि वह पुरुष लगे हुए शल्य-कांटे की तरह अपनी आत्मा के साथ संश्लिष्ट अष्टविध कर्मों को छिन्न नष्ट कर डालता है ।
जिसका आश्रय लेकर वह पुरुष शल्य रूप कर्मों का अपनयन करता है, उसका दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं -
नेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुजो दुहावासं, असुहत्त तहा तहा ॥११॥ छाया - नेतारं स्वाख्यात, मुपादाय समीहते ।
भूयो भूयो दुःखावास, मशुभत्वं तथा तथा ॥ अनुवाद - तीर्थंकरों ने मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग का-सम्यक् दर्शन ज्ञानचारित्रात्मक पथ का निरूपण किया है । अतएव बुद्धिशील पुरुष इन्हें स्वीकार कर मोक्षपथ की ओर गमनोद्यत हो । बालवीर्य
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