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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् के साथ घटित हुआ, यह जानकर उसका परित्यागा कर दे । इसका अभिप्राय यह है कि सराग, संयम दशा में कभी मान का उदय हो तो वह उसे तुरन्त विफल-निष्फल कर दे अर्थात् दबा दे । इसी तरह माया आदि का भी दमन करे, 'सुयंमे इहमेगेसिं एयं वीरस्य वीरियं' यह पाठान्तर यहाँ प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि संग्राम के मस्तक में-अग्रभाग में बड़े-बड़े योद्धाओं द्वारा उपस्थापित संकट-कठिनाई में जिस सेना द्वारा शत्र सेना को विजित किया जाता है वैसा करना वास्तव में वीर्य नहीं है। जिस आत्मपराक्रम द्वारा काम क्रोध आदि विजित किये जाते हैं, वही पुरुष का-महापुरुष का वास्तविक वीर्य-सच्चा शौर्य है । यह मैंने इस संसार में अथवा मनुष्य जन्म में तीर्थंकर आदि महापुरुषों के वचन सुने हैं । अथवा 'आयतटुं सुआदाय, एवं वीरस्स वीरियं' ऐसा यहां पाठान्तर प्राप्त होता है। उसका अभिप्राय यह है कि आयत-मोक्षकावाचक है. क्योंकि उसके अवस्थान का निवास का पर्यवसान-अन्त नहीं है. उस मोक्षात्मक अर्थ को अथवा मोक्षप्रद-सम्यक दर्शन ज्ञान एवं चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को आयतार्थ कहा जाता है । उसे भली भाँति ग्रहण कर जो पुरुष धृतिबलधैर्य की शक्ति से काम क्रोध आदि को जीतने के लिए जो पराक्रम प्रकट करता है, वही उस वीर का वास्तविक वीर्य है । पहले जो प्रश्न किया गया था कि वीर पुरुष का वीरत्व क्या है, वह इस रूप में व्याख्यात हुआ है । सुख भोग में लिप्सा या तृष्णा सातागौरव कहा जाता है । साधु उसके लिए उद्यम न करे । वह क्रोधाग्नि को विजित कर शीतल-शांत रहे अर्थात् अनुकूल या प्रतिकूल शब्दादि विषय यदि उसके सम्मुख आये तो वह उनमें रक्तता-अनुराग भाव, द्विष्टता-द्वेष भाव न करता हुआ जितेन्द्रिय होने के कारण उनसे निवृत्त-दूर रहे । प्राणी वर्ग जिसके द्वारा निहत किये जाते हैं, उसे निहा कहा जाता है । वह माया है । साधु माया, प्रपंच से पृथक् रहे । इसी प्रकार साधु मान रहित एवं लोभ वर्जित रहे यह जानना चाहिए । इस प्रकार वह संयम का अनुसरण करे । मृत्युकाल में अथवा अन्यकाल में साधु-पंडित वीर्ययुक्त तथा महाव्रतों में उद्यत रहे । उनके पालन में तल्लीन रहे । इन पांच महाव्रतों में प्राणातिपात-हिंसा में विरति बड़ा महत्वपूर्ण है । इसलिए इसे प्रतिपादित करने हेतु सूत्रकार कहते हैं-'उडमहे आदि । यह श्लोक सूत्रादर्शों में-सूत्र की पाण्डुलिपियों में प्राप्त नहीं होता किन्तु टीका में मिलता है । इसलिए यहाँ इसका उल्लेख किया है-इसका अर्थ स्पष्ट है ।
पाणे य णाइवाएज्जा, अदिन्नपि य णादए । सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे बुसीमओ ॥१९॥ छाया - प्राणाञ्च नातिपातयेत्, अदत्तं पि च नाददीत ।
सादिकं ना मृषा ब्रूया देष धर्मो वश्यस्य ॥ अनुवाद - वश्य-जितेन्द्रीय पुरुष का यही धर्म है कि वह प्राणियों का अतिपात-हिंसा न करें। न ही दी हुई किसी की वस्तु न ले । माया-छलकपट न करे और असत्य न बोले ।
____ टीका - प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयेत्, तथा परेणादत्तं दन्तशोधनमात्रमपि 'नादरीत' न गृह्णीयात्, तथा-सहादिना-मायया वर्तत इति सादिकं-समायं मृषावादंन ब्रूयात्, तथाहि-परवञ्चनार्थंमृषावादौऽधिक्रियते. स च न मायामन्तरेण भवतीत्यतो मृषावादस्य माया आदिभूता वर्त्तते, इदमुक्तं भवति-यो हि परवञ्चनार्थं समायो मृषावादः स परिहियते, यस्तु संयम गुप्त्यर्थं न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषायेति, एष यः प्राक् निदृष्टो धर्मः-श्रुत चारित्राख्यः स्वभावो वा 'वुसीमउ' त्ति छान्तसत्वात्, निर्देशार्थस्त्वयं-वस्तूनि ज्ञानादीनि तद्वतो ज्ञानादिमत इत्यर्थः, यदि वा-बुसीमउत्ति वश्यस्य-आत्मवशगस्य-वश्येन्द्रियस्येत्यर्थः ॥१९॥
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