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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् भगवतां यत्पराक्रान्तं-तपोऽध्ययनयमनियमा दावनुष्ठितं तच्छुद्धम् -अवदातं निरुपरोधं सात गौरव शल्यकषायादिदोषाकलङ्कितं कर्मबन्धं प्रति अफलं भवति-तन्निरनुबन्ध, निर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः, तथा ह-सम्यग्दृष्टिीना सर्वमपि संयमतपः प्रधानमनुष्ठानं भवति, संयमस्य चानाश्रवकपत्वात् तपसश्व निर्जराफलत्वादिति, तथा. च पठयतेसंयमे अणण्ध्यफले तवे बोदाण फले इति ॥२३॥
टीकार्थ - जो स्वयं बुद्ध-अपने आप बोध प्राप्त तीर्थंकर आदि हैं, उनके शिष्य अथवा बुद्ध बोधितज्ञानी द्वारा बोध प्राप्त गणधर आदि हैं, जो महा पूजनीय हैं कर्मों के विदारण-उच्छेदन या विनाश में सक्षम हैं अथवा जो ज्ञानादि गुणों से सुशोभित हैं, परमार्थ तत्त्व वेदी-पदार्थों के सत्य स्वरूप को जानने वाले हैं उन महापुरुषों का तप, अध्ययन, यम एवं नियम आदि में अनुष्ठित उद्यम शुद्ध है अर्थात् वह सुख की अनिवांछ क्रोधादि शल्य, कषाय रूप दोषों से कलंकित दूषित नहीं हैं । इसलिए वह कर्मबंध की दृष्टि से निष्फल हैंनिरूपबंध है । वह केवल निर्जरा-कर्म निरजरण के लिए होता है । क्योंकि सम्यक् दृष्टि पुरुषों के सभी उद्यम संयम एवं तप प्रधान होते हैं। संयम अनाश्रव रूप-संवर रूप है तथा तप का फल निर्जरा-कर्मक्षय है। अतएव यह शास्त्र पाठ है कि संयम से आश्रव का निरोध होता है तथा तपश्चरण से निर्जरा फलित होती है।
तेसिंपि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला ।
जन्ने वन्ने वियाणंति, न सिलोगं पव्वेजए ॥२४॥ छाया - तेषामपि तपो न शुद्ध, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः ।
यन्नैवाऽन्ये विजानन्ति, नश्लोकं प्रवेदयेत् ॥ अनुवाद - जो महाकुल-उच्चकुल में उत्पन्न है, प्रवर्जित है, वे यदि अपने तप की प्रशस्ति करते हैं अथवा सत्कार, सम्मान हेतु तपश्चरण करते हैं तो उनका वह उद्यम अशुद्ध है । साधु अपने तप को इस प्रकार गुप्त रखे जिससे अन्य-दान देने में श्रद्धाशील पुरुष उसे जान न पाये । अपने मुँह से कभी वह अपनी प्रशंसा न करे ।
टीका - किञ्चान्यत्-महत्कुलम्-इक्ष्वाकादिकं येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्ण यशसस्तेषामपि पूजासत्काराद्यर्थमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति, यच्च क्रियमाण मपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयम्, अतो नैवात्मश्लाघां 'प्रवेहयेत्' प्रकाशयेत्, तद्यथा अहमुत्तमकुलीन इभ्यो वाऽऽसं साम्प्रतं पुनस्तपोनिष्ट प्तदेह इति, एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुनामापादयेदिति ॥२४॥
टीकार्थ – जो इक्ष्वाकु आदि उच्च कुलों में उत्पन्न हैं तथा शौर्य पराक्रम आदि के कारण जगत में जिनकी कीर्ति व्याप्त है, उन द्वारा यदि पूजा सत्कार-मान प्रतिष्ठा पाने की अभिलाषा से तप किया गया हो अथवा वे अपने तप की प्रशंसा करते हों, तो वह अशुद्ध है, अध्यात्म की दृष्टि से निर्दोष नहीं है । अत: आत्मार्थी साधक प्रयत्नशील रहे कि वे पुरुष उसके तप को न जान सके । जो दान में श्रद्धा रखने वाले हैं, वह स्वयं अपनी प्रशंसा भी न करे कि मैं उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ । धन, वैभव सम्पन्न रहा तथा अब तपश्चरण द्वारा अपनी देह को परितप्त करने वाला तपस्वी हूँ । इस प्रकार वह स्वयं अपने तपोमय अनुष्ठान को प्रकट करता हुआ, उसे नि:सार न बनाये ।
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