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श्री वीर्याध्ययनं
अपि त्यागादिभिर्गुणैर्लोकपूज्या अपि तथा सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक् तत्त्वपरिज्ञान विकलाः केचन भवन्तीति दर्शयति न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्त्वं तद्द्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः, तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययन यमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमकृतं तदशुद्धं अविशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावो पहतत्वात् सनिदानत्वाद्वेति कुवैद्यचिकित्सावद्धि परीतानुबन्धीति, तच्च तेषां पराक्रान्तं सह फलेन - कर्म बन्धेन वर्तत इति सफलं 'सर्वश' इति सर्वाऽपि तत्क्रिया तपोऽनुष्ठानादिका कर्मबन्धोयैवेति ॥२२॥ साम्प्रतं पण्डितवीर्यिणोऽधिकृत्याह
टीकार्थ - जो पुरुष बुद्ध धर्म के रहस्य या सार को नहीं जानते, व्याकरण के शुष्क तर्कों के ज्ञान के बल पर अपने को अत्यन्त अहंकारी, पण्डित मानते हैं, वे परमार्थ वस्तु तत्व - यथार्थ ज्ञान से रहित हैं । इसलिए उनको अबुद्ध-अज्ञ कहा गया है । सम्यक्त्व के बिना केवल व्याकरण के परिज्ञान से पदार्थ के सत्यस्वरूप का अवबोध नहीं होता । कहा गया है कि शास्त्रों में अवगाहन - गहराई तक प्रविष्ट तथा उनकी व्याख्या करने में तत्पर - कुशल होते हुये भी अज्ञ पुरुष वस्तुतत्व - वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता । जैसे गर्वी- कुछ या चम्मच तरह तरह के सरस पदार्थों में चिरकाल पर्यन्त पड़ा रहता हुआ भी उनके रस के स्वाद को नहीं जान पाता । अथवा बालवीर्य युक्त पुरुष को अबुद्ध कहा जाता है। भाग शब्द पूजा या सत्कार द्योतक है । जो लोगों द्वारा पूजनीय व माननीय होते हैं वे महाभाग कहें जाते हैं। वे लोक विश्रुत होते हैं। जो शत्रु की सेनाओं का भेदन करने में, उन्हें छिन्न-भिन्न करने में सक्षम होते हैं, वे सुघड़ कहे जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि कई पुरुष पण्डित व्याकरण आदि विषयों के विद्वान् तथा त्याग आदि विशेषताओं के कारण लोक में पूज्य - सत्कार योग्य तथा सुभट-युद्ध में शौर्यशाली होते हुये भी वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं जानते हैं, सूत्रकार ऐसा अभिव्यक्त करते हैं । जो सम्यक् यथार्थ - ठीक नहीं है, उसे असम्यक् कहा जाता है। असम्यक् भाव या स्वरूप असम्यक्त्व कहलाता है । जो असम्यक्त्व युक्त होते हैं वे मिथ्या दृष्टि हैं । वे बाल- धार्मिक दृष्टि से अज्ञ हैं । इन मिथ्यादृष्टि पुरुषों का तप, दान, अध्ययन, यम एवं नियम आदि में तन्मूलक साधना में किया गया पराक्रम-उद्यम अशुद्ध है अविशुद्धिकारी है। इसलिए वह कर्मबंध का हेतु है । क्योंकि वह सम्यक्त्व भाव से रहित है - तथा फलाभिकांक्षा युक्त है। जैसे कुवैद्य-अयोग्य चिकित्सक की चिकित्सा से रोग नष्ट नहीं होता किन्तु वह बढ़ता ही है, उसी प्रकार उन अज्ञ जनों का पराक्रम उद्यम या क्रिया कलाप कर्म बंध सहित होता है । इस प्रकार मिथ्यात्वी द्वारा निष्पादित तपश्चरण आदि सभी क्रियायें कर्म बंध के लिए ही होती हैं । अब पण्डित वीर्य युक्त पुरुषों के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं ।
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जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो ।
सुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥
छाया
ये च बुद्धाः महाभागाः वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्धं तेषां पराक्रान्त मफलं भवति सर्वशः ॥
अनुवाद जो बुद्ध - वस्तुत्ववेत्ता, महाभाग पदपूजनीय तथा कर्मों के विदारण में समर्थ सम्यक् दृष्टि हैं उनके तपश्चरण आदि कार्य शुद्ध होते हैं । कर्मों के नाश हेतु, मोक्ष प्राप्ति हेतु होते हैं ।
टीका - ये केचन स्वयम्बुद्धास्तीर्थकराद्यास्तीच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरा दयो 'महाभाग' महापूजाभाजो 'वीराः 'कर्म विदारण सहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः, तथा 'सम्यक्त्वदर्शिन: ' परमार्थ तत्ववेदिनस्तेषो
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