________________
श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् सम्पूर्ण आहार है । साधु को चाहिये कि आहार में एक कवल-ग्रास कम करते जाने का अभ्यास करे । अवमोदर्यउनोदरि करे । भूख से कम खाये । इसी प्रकार पान-पेय पदार्थों में तथा अन्य उपकरणों में भी अवमोदर्य करना चाहिए । कहा गया है कि जो स्तोक-थोड़ा खाता है । थोड़ा भाषण करता है, थोड़ी नींद लेता है, थोड़ी उपधिउपकरण रखता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं । उत्तम व्रत युक्त साधु थोड़ा बोले, हितप्रद बोले । वह सदैव विकथा-जिससे चारित्र दूषित होने की आशंका हो, वैसी बात न करे ।
अब सूत्रकार भाव अवयोदर्य के सम्बन्ध में बतलाते हैं । साधु क्रोध आदि को शान्त कर क्षमाशील बने । लोभ आदि को जीतकर अनातुर-आतुरता रहित बने । इन्द्रिय और मन का दमन कर जितेन्द्रीय बने । अतएव कहा है कि जिसने अपने कषायों का नाश नहीं किया तथा जिसका मन अपने नियन्त्रण में नहीं है, उसकी प्रव्रज्या केवल जीवन चलाने के लिए या पेट भरने के लिए है । अतः साधु ग्रिद्धि-वैयिक आसक्तता से पृथक् होकर सदैव संयम का अनुपालन करने में यत्नशील रहे ।
झाण जोगं समाहट्ट , कायं विउसेज सव्वसो । तितिक्खं परमं णच्चा, आयोक्खाए परिव्वएज्जासि त्तिबेमि ॥२६॥ छाया - ध्यान योगं समाहृत्य, कायं व्युत्सृजेत्सर्वशः ।
तितिक्षां परमां ज्ञात्वाऽऽमोक्षाय परिव्रजेदिति ब्रवीमि ॥ अनुवाद - साधु ध्यान योग-ध्यानात्मक साधना को स्वीकार समग्र असत कार्यों से मन वचन एवं शरीर का निरोध करे,-इन द्वारा वैसा न करे । परीषह और उपसर्ग को सहन करना श्रेयस्कर है। यह जानकर जब तक मोक्ष प्राप्त न हो जाए संयम का अनुपालन करे ।
टीका - अपिच-'झाणजोगम्' इत्यादि, ध्यानं-चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्ट मनोवाक्काय व्यापारस्तं ध्यानयोगं 'समाहृत्य' सम्यगुपादायं 'काय' देहमकुशलयोगप्रवृत्तं 'व्युत्सृजेत' परित्यजेत् 'सर्वतः सर्वेणापि प्रकारेणा, हस्तपादादिकमपिपरपीड़ाकारिनव्यापारयेत् तथा तितिक्षां' क्षान्तिपरीषहोपसर्गसहनरूपां 'परमां' प्रधानां ज्ञात्वा 'आमोक्षाय' अशेष कर्मक्षयं यावत् 'परिव्रजेरि' ति संमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२६॥ समाप्तं चाष्टमं वीर्याख्यमध्ययनमिति ॥
टीकार्थ - चित्त का निरोध करना-असत् विषयों से उसे रोकना, धर्म का अनुचिन्तन करना आदि ध्यान कहा जाता है । उसमें-ध्यान में मन, वचन एवं शरीर द्वारा विशेष रूप से संलग्न होना उससे जुड़ना ध्यान योग है । ध्यान योग का अच्छी तरह उपादान कर-ग्रहण कर अकुशल-अशुभ योग में, प्रवृत्तियों में जाती हुई देह का निरोध करो, शरीर को उस ओर न जाने दो । अपने हाथ पैर आदि अंगों को भी पर पीडाकारी-अन्य प्राणियों के लिए पीड़ा उत्पन्न करने वाले कार्यों में संलग्न न होने दो । परिषह एवं उपसर्ग को परम प्रधान आत्म कल्याण हेतु अति उत्तम समझो । जब तक समस्त कर्मों का क्षय न हो जाए, संयम का अनुसरण करो, यह मैं कहता हूँ । इति शब्द समाप्ति के अर्थ में है, ब्रवीमि बोलता हूँ. यह पूर्ववत् योजनीय है ।
वीर्य नामक आठवां अध्ययन समाप्त हुआ ।
414