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( श्री वीर्याध्ययनं - अप्प पिंडासि पाणामि, अप्पं भासेज सुव्वए ।
खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए ॥२५॥ छाया - अल्प पिण्डाशी पानाशी, अल्पं भाषेत सुव्रतः ।
क्षान्तोऽभिनिर्वृतो दान्तो वीतगृद्धिः सदा यतेत ॥ अनवाद - सव्रत-उत्तम व्रत युक्त साध उदर निर्वाह हेत अल्प भोजन करे. अल्प जल पीये. अल्प भाषण करे, क्षमाशील रहे, लोभ आदि से दूर रहे । अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखे । विषय भोग में गृद्ध-लोलुप-आसक्त न रहे तथा सदैव संयम पालन में उद्यत रहे ।
___टीका - अपिच-अल्पं-स्तोकं पिण्डमशितुं शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी यत्किञ्चनाशीति भावः, एवं पानेऽप्यायोज्यं, तथा चागम्:
'हे' जंवतं व आसीय जत्थ व तत्थ व सुहोवगय निद्दो । जेण व तेण (व) संतुट्ठ वीर ! मुणिओऽसि ते आपा ॥१॥
छाया - यद्वातद्वाअशिला यत्र तत्र वा सुखापगतनिद्रः । येन तेन वा सन्तुष्टः हे वीर ! त्वायात्मा ज्ञातोऽस्ति ॥१॥
तथा "अट्ठदुक्कुडिअंडग मेत्तप्पमाणे कवले आहारे पाणे अप्पाहारे दुवालसकलवलेहि अवड्ढोमोयरिया सोल सहिं दुभागेपत्ते चउवीसं ओमोदरिया तीसं पमाणपत्ते बत्तीसं कवला संपुण्णाहारे" इति, अत एकैक कवल हान्यादिनोनोदरता विधेया, एवं पाने उपकरणे चोनोदरतां विदध्यादिति, तथा चोक्तम् -
"थोवा हारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिद्दो अ । थोवोवहि उपकरणो तस्स हु देवाणि पण मंति ॥१॥"
छाया - स्तोकाहारः स्तोकभणितः स्तोकनिद्रश्च यो भवति । स्तोकोपधिकोपकरणस्तस्मै चदेवा अपि प्रणमन्ति ॥
तथा 'सुव्रतः'साधुः अल्पं परिमितं हितं चभाषेत,सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः, भावावमौदर्यमधिकृत्याहभावतः क्रोधाद्युपशमात् 'क्षान्तः' क्षान्तिप्रधानः तथा अभिनितो' लोभादिजयान्निरातुरः, तथा इन्द्रिय नोइन्द्रियदमनात् 'दान्तो' जितेन्द्रियः, तथा चोक्तम् -
"कषाया यस्य नोच्छिन्ना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ॥१॥"
एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिः-आशंसा दोष रहितः 'सदा' सर्वकालं संयमानुष्ठाने 'यतेत' यत्नं कुर्यादिति ॥२५॥
टीकार्थ - साधु स्वभाव से ही स्वल्प भोजी-थोड़ा भोजन करने वाला तथा स्वल्प जल पीने वाला हो । आगम में कहा गया है कि वीर-आत्मबल के धनी पुरुष तुम को जो कुछ प्राप्त होता है, उसे खाकर जिस किसी स्थान पर तुम सुख से सोते हो, जो कुछ मिलता है, उसी से संतुष्ट होकर विचरते हो । तुमने अपनी आत्मा को, अपने आप को पहचान लिया है । और भी कहा है जो मुर्गी के अण्डे के समान आठ कंवल-ग्रास भोजन करता है, वह अल्पाहार कहा जाता है । जो बारह ग्रास भोजन करता है वह अपार्ध-आधे से न्यन या अवमोदर्य कहा जाता है । सौलह कवल आहार करना स्वल्प अवमोदर्य है। चौबीस कवल आहार करना उससे अर्ध है-उससे आधा है । तीस कवल भोजन करना प्रमाण आहार है । बत्तीस कवल भोजन करना
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