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श्री वीर्याध्ययनं
लेता है क्योंकि पापों पग- पाप के साथ चलने वाले पापों से जुड़े हुए सावद्य अनुष्ठान - अशुभकर्म जब परिपक्व होते हैं, उनके फल देने का समय आता है, तब वे दुःख उत्पन्न करते हैं अर्थात् उनका विपाक-परिपाक असातावेदनीय के रूप में-दु:ख के रूप में उदित प्रकटित होता है ।
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संपरायं
णियच्छंति, अन्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहुं ॥८॥
छाया सम्परायं नियच्छन्त्यात्मदुष्कृत कारिणः । रागद्वेषाश्रिता बालाः, पापं कुर्वन्ति ते बहु ॥
अनुवाद
आत्म दुष्कृतकारी - स्वयं दूषित कार्य-पाप कार्य करने वाले जीव साम्परायिक् कर्म बाँधते राग द्वेषाश्रित- राग एवं द्वेष में संलग्न बाल अज्ञजन बहुत पापों का बंध करते हैं ।
टीका- 'सम्परायं णियच्छंती 'त्यादि, द्विविधं कर्म - ईर्यापथं साम्परायिकं च, तत्र सम्पराया-बादरकषायास्तेभ्य आगतं साम्परयिकं तत् जीवोपमर्द्दकत्वेन वैरानुषङ्गितया 'आत्मदुष्कृतकारिणः ' स्वपापविधायिनः सन्तो 'नियच्छन्ति' बध्नन्ति तानेव विशिनष्टि - 'रागद्वेषाश्रिताः ' कषायकलुषि तान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलत्वात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः ‘पापम्' असद्वेद्यं 'बहु' अनन्तं 'कुर्वन्ति' विदधति ॥८॥ एवं बालवीर्यं प्रदर्योपसंजिघृक्षुराहटीकार्थ - इर्या पथ एवं साम्परायिक के रूप में कर्म के दो प्रकार हैं। सम्पराय का आशय बादरस्थूल कषाय से है, उससे जो दुष्कृत् होता है, वैरानुसंगीता शत्रुभाव से सम्बद्ध होने के कारण जो जीवों की हिंसा होती है, उससे प्राणी इस कर्म का बंध करते हैं। वैसे पापी विधायी - पाप कर्म करने वाले पुरुषों की विशेषता बताते हुए प्रतिपादन करते हैं कि राग तथा द्वेष से आश्रित - सगमय तथा द्वेषमय भावों से आपूर्ण, कषाय से कलुषित अन्तःकरण युक्त पुरुष सत् और असत् के ज्ञान से शून्य होने के कारण एक बालक की ज्यों अज्ञ हैं। ऐसे ज्ञान विवर्जित जन अनन्त पाप करते हैं। इस प्रकार बालवीर्य वीर्य को प्रदर्शित कर उसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं
एवं इत्तो
छाया
सकम्मवीरियं, बालाणं अकम्मविरियं, पंडियाणं
-
तु
एतत् सकर्मवीर्य्यं, बालानान्तु प्रवेदितम् । अतोऽकर्मवीर्य्यं पण्डितानां शृणुत मे ॥
अनुवाद - बालकों-अज्ञानी जनों के सकर्म वीर्य का प्रवेदन विवेचन किया गया है। अब यहाँ से पण्डितों- ज्ञानी जनों के अकर्म वीर्य का विवेचन मुझसे सुनो।
पवेदितं । सुणेह मे ॥९॥
टीका 'एतत् ' यत् प्राक् प्रदर्शितं, तद्यथा प्राणिनामतिपातार्थं शस्त्रं शास्त्रं वा केचन शिक्षन्ते तथा परे विद्यामन्त्रान् प्राणिबाधकानधीयते तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारांमायां कृत्वा कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वते
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