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श्री वीर्याध्ययनं "सुचिरतरमुषित्वा बान्धवैर्विप्रयोगः, सुचिरमपि हि रन्त्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः ।। सुचिर मपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्मः एकः सहायः ॥१॥"
इति, चकारौ धनधान्य द्विपदचतुष्पद शरीराद्यनित्यत्व भावनाओं (र्थ) अशरणाश्चशेषभावनार्थ वानुक्तसमुच्चयार्थमुपान्ताविति ॥१२॥ अपिच -
टीकार्थ - अब अनित्य को उदिष्ट कर आगमकार कहते हैं-जो स्थान या उच्च पद युक्त होते हैं, इनको स्थानी कहा जाता है । जैसे स्वर्ग में इन्द्र एवं उनके सामानिक तैंतीस पार्षद्य आदि स्थानी हैं । इसी प्रकार मानवों में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, महामाण्डलिक-बड़े मण्डल या विशाल राज्य का स्वामी आदि स्थानी-उच्चपद युक्त है । इसी प्रकार तिर्यञ्च प्राणियों के संदर्भ में भी समझना चाहिए । इस भोग भूमि में जो भी स्थान हैं, वे सब भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्तम, मध्यम एवं अधम कोटिके हैं । उनके स्थानी-अधिपति एक दिन निश्चय ही उनका त्याग कर देंगे, इसमें जरा भी संदेह नहीं है । कहा है जितने स्थान-उच्च पद स्वर्ग लोक में तथा मर्त्यलोक में है, सभी अशाश्वत-अस्थायी या स्वल्पकाल के लिए हैं । इसी प्रकार देवों . असुरों एवं मानवों की ऋद्धि-वैभव एवं सुख भी अशाश्वत, स्वल्प कालिक है । ज्ञातिजनों, कुटुम्बीवृन्द तथा स्नेहशील मित्रों के साथ जो संवास-साहचर्य है, वह भी अनित्य है । अशाश्वत है । कहा है बहुत समय तक बन्धु बान्धवों के साथ रहकर अंत में उनसे विप्रयोग-वियोग हो जाता है, बहुत समय तक रमण-सांसारिक भोग सेवन करने पर भी तृप्ति नहीं होती । जिस शरीर को चिरकाल से पुष्ट करते रहे, वह भी नष्ट हो जाता है । किन्तु यदि धर्म का सच्चिन्तन किया, उसे आत्मसात् किया तो वही इस लोक में, और परलोक में सहायक बनता है । प्रस्तुत गाथा में 'च' का दो बार प्रयोग हुआ है । उसका आशय यह है कि धन-धान्य द्विपद एवं चतुष्पद आदि सांसारिक वैभव एवं परिग्रह में अनित्यत्व की भावना रहनी चाहिए । वे अनित्य हैं ऐसा हृदयंगम करना चाहिए । अशरण आदि बारह भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए । 'च' शब्द से यह भी सूचित है कि जो बात यहाँ अनुक्त-नहीं कही गई हो. उस को भी जान लेना चाहिए ।
एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे ।
आरियं उवसंपज्जे, सव्व धम्ममकोवि (५००) यं ॥१३॥ छाया - एवमादय मेघावी, आत्मनो गृद्धिमुद्धरेत् ।
आर्य्य मुपसंपद्येत, सर्व धर्मरकोपितम् ॥ अनुवाद - पहले जो वर्णित हुए हैं, वे सभी ऊँचे पद अनित्य-नश्वर हैं । यह जानकर विवेकशील पुरुष अपनी गृद्धि-आसक्ति या लोलुपता को त्याग दे । अन्य कुतीर्थिक जनों के धर्मों से अदूषित अप्रभावितअविकृत आर्य-उत्तम धर्म को आत्मसात् करें ।
टीका - अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीत्येवम् आदाय' अवधार्य मेघावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वा आत्मनः सम्बन्धिनीं 'गृद्धिं' गाद्धर्यं ममत्वम् ‘उद्धरेद्' अपनयेत्, ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं ममत्वं क्वचिदपि न कुर्थात् तथा आराघातः, सर्वहेयधर्मेभ्यइत्यार्थो-मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः, आर्याणां वातीर्थकृदादीनामयमार्यो-मार्गस्तम् 'उपसम्पद्येत' अदितिष्ठेत् समाश्रयेदिति, किम्भूतं मार्गमित्याह-सर्वैः कुतीर्थिक
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