________________
- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् धर्म: ‘अकोपितो' अदूषितः स्वमहिम्नैवदूषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठांगतः (तं), यदि वा-सर्वैर्धमैः-स्वभावैरनुष्ठान रूपैगोपितंकुत्सितकर्तव्याभावात् प्रकटमित्यर्थः ॥१३॥
टीकार्थ - मेधावी-अपनी मर्यादा में विद्यमान अथवा सत्-असत् के विवेक युक्त पुरुष सभी स्थान पर अनित्य है, ऐसा चिन्तन कर उनके प्रति गृद्धि-ममत्व या आसक्ति का त्याग कर दे । वह कभी भी ऐसा न सोचे कि यह वस्तु मेरी है, मैं इसका मालिक हूँ । जो सभी हेय-त्यागने योग्य धर्मो से-असत् चिंतन और आचरण से दूरवर्ती है, उसे आर्य धर्म कहा जाता है । वह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र मूलक मोक्षधर्म है, अथवा-तीर्थंकर आदि आर्य पुरुषों का जो मार्ग है, उसे आर्य कहते हैं । मेधावी पुरुष उसे समाश्रित करे-ग्रहण करे । वह मार्ग कैसा है ? इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि वह सभी कुतीर्थिकों धर्मों द्वारा मिथ्यावादी जनों के सिद्धान्तों द्वारा अदूषित-अविकृत है, अप्रभावित है । वह इतनी महिमा एवं गरिमामय है कि कुतीर्थिकों के सिद्धान्तों द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता, अथवा वह सभी धर्मों इतर सिद्धान्तों या उनकी क्रियाओं से अगोपित है-अस्पृष्ट है । किसी भी कुत्सित कर्त्तव्य या क्रिया का सद्भाव न होने से यह अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट है ।
सह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खाय पावए ॥१४॥ छाया - सह सन्मत्या ज्ञात्वा, धर्मसारं श्रुत्वा वा ।
समुपस्थितस्त्वनगारः प्रत्याख्यातपापकः ॥ अनुवाद - समुपस्थित-ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में, आत्मोन्नति में संप्रवृत्तसाधु सन्मति-अपनी निर्मल बुद्धि द्वारा गुरु आदि से श्रवणकर धर्म के सार-सत्यस्वरूप को अवगत कर पाप का परित्याग करे ।
टीका - सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति तद्दर्शयितुमाह-धर्मस्य सारः-परमार्थो धर्मसारस्तं ज्ञात्वा' अवबुद्धय, कथमिति दर्शयति-सह सन्-मत्या स्वमत्या-विशिष्टाभिनिर्बोधकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्वपरावबोधकत्वात् ज्ञानस्य, तेन सह, धर्मस्य सारं ज्ञात्वेत्यर्थः, अन्येभ्यो वा-तीर्थंकरगणधराचार्यादिभ्यः इलापुत्रवत् श्रुत्वा चिलातपुत्रवद्वा धर्मसारमुपगच्छति, धर्मस्य वा सारं-चारित्रं तत्प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपतौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पनो रागादिबन्धनविमुक्तो बालवीर्यरहित उत्तरोत्तरगुणसम्पत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमान परिणामः प्रत्याख्यातंनिराकृतं पापकं-सावद्यानुष्ठानरूपं येनासौ प्रत्याख्यातपापको भवतीति ॥१४॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - सुधर्म-उत्तम धर्म का मनुष्य को परिज्ञान जिस प्रकार हो, उसे बताने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं - .
धर्म का सार या सच्चा स्वरूप परमार्थ है । वह किस प्रकार जाना जाए, इसे अवगत कराने हेतु कहते हैं कि-इसे बुद्धि द्वारा या अपने विशिष्ट अमिनि बोधिक ज्ञान-अपनीविशिष्ट मतिज्ञान प्रवण बुद्धि द्वारा या श्रुत ज्ञान द्वारा, अवधिज्ञान द्वारा धर्म के सार को जाने, इसका यह तात्पर्य है । अथवा तीर्थंकर, गणधर, आचार्य आदि से इलापुत्र की ज्यों या दूसरे से श्रवण कर चिलात पुत्र की ज्यों धर्म का सार वैसा पुरुष जानता है । अथवा धर्म का सार चारित्र है, उसे प्रतिपन्न--स्वायत्त करता है । चारित्र को प्राप्त कर पूर्वबद्ध कर्मों को क्षीण
(404)