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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् केचन पुनरपरे वैरिणस्तत्कुर्वन्ति येन वैररैनुबध्यन्ते (ते) तथाहि-जमदग्निना स्वभार्याऽकार्यव्यतिकारे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्येण पुनर्जमदग्निः, जमदग्निसुतेन परशुरामेण सप्तवारान् निःक्षत्रापृथिवीकृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन त्रि:सप्तकृत्वो ब्राह्मणा व्यापादिताः, तथा चोक्तम् -
“अपकारसमेन कर्मणा न · नरस्तुष्टि मुपैति शक्तिमान् ।
अधिकां कुरु वै (तेऽ) रियातनां द्विषतां जातम शेष मुद्धरेत् ॥१॥" तदेवं कषायवशगाः प्राणिनस्तकुर्वन्ति येन पुत्रपौत्रादिष्वपि वैरानुबन्धो भवति, तदेतत्सकर्मणां बालानां वीर्यं तुशब्दात्प्रमादवतां च प्रकर्षेण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमिति यावत्, अत ऊर्ध्वमकर्मणां-पण्डितानां यद्वीर्य तन्मे-मम कथयतः शृणुत यूयमिति ॥९॥ यथा प्रतिज्ञातमेवाह -
टीकार्थ - जैसा पहले विवेचन किया गया है, प्राणियों का अतिपात-नाश करने हेतु कई लोग शस्त्रविद्या तथा शास्त्र विद्या का अभ्यास करते हैं एवं कई अन्य लोग ऐसी विद्याओं और मंत्रों का साधन करते हैं जिनसे दूसरों को कष्ट दिया जा सके । कतिपय, कपटी, मायावी, छल प्रपंच कर काम भोग के निमित्त हिंसा करते हैं, तथा कितने ही ऐसे कर्म करते हैं जिससे शत्रुता की परम्परा अनुबद्ध होती है । उदाहरण है-जमदग्नि ने अपनी भार्या के साथ ककर्म करने के प्रतिकार के रूप में कतवीर्य का नाश कर डाला था । इस वैर के कारण उसके पुत्र कार्तवीर्य ने जमदग्नि का वध कर डाला । फिर जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने सात बार इस भूमि को निःक्षत्रिय-क्षत्रिय विहीन कर दिया । तत्पश्चात् कातवीर्य के पुत्र सुभुम ने इक्कीस बार ब्राह्मणों का व्यापादनविनाश किया कहा है । अपकार का-अपने प्रति किये गए विरुद्धाचरण का उसी के सदृश अपकार या विरुद्धाचरण कर शक्ति शाली पुरुष सन्तुष्ट नहीं होता वह तो शत्रु को अधिक से अधिक पीड़ा देना चाहता है और प्रयत्न करता है कि उसका मूलोच्छेद हो जाय । इस प्रकार कषाय के वशगामी-अधीन होकर प्राणी ऐसे कार्य करते हैं जिससे पुत्र-पौत्र पर्यन्त वह वैर चलता रहता है । इस प्रकार सकर्म-कर्मयुक्त बल अज्ञानी जनों का वीर्य प्रवेदित-विषद रूप में प्रतिपादित किया गया है ।
यहाँ तू शब्द से प्रमाद युक्त जनों का भी ग्रहण है । इससे आगे अकर्मा-कर्म रहित, पण्डित-ज्ञानीजनों के वीर्य का मैं वर्णन करता हूँ । तुम लोग सुनो । जैसा प्रतिज्ञात-संसूचित किया है तद्नुसार सूत्रकार कहते
दव्विए बंधणुम्मुक्के, सव्वओ छिन्नबंधणे । पणोल्ल पावकं कम्म, सल्लं कंतति अंतसो ॥१०॥ छाया - द्रव्यो बन्धनान्मुक्तः, सर्वतश्छिन्न बन्धनः ।
प्रणुद्य पापकं कर्म, शल्यं कृन्तत्यन्तशः ॥ अनुवाद - भव्य-मुक्ति प्राप्त करने योग्य पुरुष सब प्रकार के बन्धनों को उछिन्न कर-काटकर एवं उनसे छूटकर, पाप कृत्य का परिहार कर अष्टविध कर्मों को नष्ट कर डालता है ।
टीका - 'द्रव्यो' भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं च भव्ये' इति वचनात् रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्य भूतोऽकषायीत्यर्थः, यदि वा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः, तथा चोक्तम् -
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