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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् "मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्यं, मुष्टौ दृष्टिं निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विज्ञानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥१॥"
तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयानिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति, तथा एवं शौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थं तथा कामशास्त्रादिकं । माध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्वं, बालवीर्य, किञ्च एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकाना (ते) थर्वणारश्चमेघपुरुषमेघसंर्वमेघादियागार्थमधीयते, किम्भूतानिति दर्शयति-प्राणा' द्वीन्द्रियादयः 'भूतानि' पृथिव्यादीनि तेषां 'विविधम्' अनेक प्रकारं 'हेटकान्' बाधकान् ऋक्संस्थानीयान् मन्त्रान् पठन्तीति, तथा चोक्तम् -
"षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेघस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥१॥" इत्यादि ॥४॥ अधुना 'सत्थ' मित्येतत्सूत्रपदं सूत्रस्पर्शिकया नियुक्तिकारः स्पष्टयितुमाह -
टीकार्थ – कई सुख और यशोलिप्सा-लोलुप पुरुष-प्राणियों का उपमर्दन-विध्वंस वाले तलवार आदि शस्त्रों का तथा धनुर्वेद आदि शास्त्रों का बड़े उद्यम-लगन के साथ शिक्षण प्राप्त करते हैं । इन द्वारा शिक्षितसीखी हुई वह विद्या जंतुओं के विनाश-हनन के लिए होती है क्योंकि उस विद्या में यह उपदेश दिया जाता है, सिखाया जाता है कि जीव को मारने के लिए इस प्रकार आलीड़-प्रत्यालीड़-निशाना लगाने की विशिष्ट स्थितियों में होकर पैरों एवं हाथों को विशेष रूप में आगे पीछे कर स्थित होना चाहिए । कहा गया है कि लक्ष्य-जहाँ निशाना लगाना हो या जिस पर लगाना हो, उसे अपनी मुट्ठी में आच्छादित करना चाहिए-उसके सामने अपनी मुट्ठी बांधकर अवस्थित होना चाहिए । बंधी हुई मुट्ठी पर अपनी नजर रखनी चाहिए । यों उस पर बाण छोड़ते हुए यदि अपना मस्तक न हिलें तो लक्षित पुरुष को हत्-मरा हुआ मानना चाहिए । वैद्यक शास्त्र में कहा गया है कि लावक-लवे नामक पक्षी का रस यक्ष्मा-थारसिस के रोगी को देना चाहिए । उसे अभयारिष्ट जो एक प्रकार का मद्य है वह भी देना चाहिए । चाणक्य के अर्थशास्त्र में प्रतिपादित हुआ है कि अर्थोपादान हेतु, धन प्राप्ति के लिए दूसरे की इस प्रकार वंचना करनी चाहिए-ठगना चाहिए । अत: इन शास्त्रों को और कामशास्त्र को अशुभ अधव्यसाय-दूषित परिणामयुक्त पुरुष ही पढ़ते हैं । इस प्रकार शस्त्रविद्या, हथियार चलाने की विद्या तथा धनुर्वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन बाल वीर्य है, यह समझना चाहिये । कई पुरुष अशुभ कर्मों के उदय के परिणामस्वरूप अश्वमेध, नरमेध, सर्वमेध आदि यज्ञों के उद्देश्य से प्राणियों के विनाशकारी अथर्ववेद के मंत्रों को पढ़ते हैं । वे मन्त्र किस प्रकार के हैं । सूत्रकार यह दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों तथा पृथ्वी आदि भूतों को विविध प्रकार से क्लेशोत्पादक ऋग्वेद के मन्त्रों को अशुभ विचारयुक्त व्यक्ति पढ़ते हैं । इस सम्बन्ध में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ के नियमानुसार मध्यान्ह में तीन कम छः सौ-पाँच सौ सत्तानवे पशुओं का नियोजन्-व्यापादन किया जाता है ।
नियुक्तिकार ने शस्त्रशब्द की जो व्याख्या की है, तद्विषयक गाथा द्वारा सूत्र में आये शस्त्र शब्द को स्पष्ट करने हेतु सूत्रकार यहाँ कहते हैं -
सत्थं असिमादीये विजामंते य देव कम्मकयं । पत्थिववारुण अग्गेय वाऊ तह मीसगं चेव ॥
टीका - शस्त्रं-प्रहरणंतच्च असिः-खङ्गस्तदादिकं, तथा विद्याधिष्ठितं, मन्त्राधिष्ठितं देवकर्मकृतंदिव्यक्रियानिष्पादितं. तच्च पञ्चविधं, तद्यथा-पार्थिवं वारुण माग्नेयं वयव्यं तथैवव्यादि मिश्रं येति । किञ्चान्यत् । -
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