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श्री वीर्याध्ययनं
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अष्टमं श्री वीयध्यियन
दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियंति पबुच्चई । किं नु वीरस्स वीरत्तं कहं चेयं एवुच्चई ? ॥१॥ छाया - द्विधा वेदं स्वाख्यातं वीर्यमिति प्रोच्यते ।
किं नु वीरस्य वीरत्वं कथञ्चेदं प्रोच्यते ॥ अनुवाद - सर्वज्ञों ने वीर्य दो प्रकार का आख्यात किया है-बतलाया है । वीर पुरुष का वीरत्ववीरता क्या है ? वह वीर क्यों कहा जाता है ? यह प्रश्न विवेच्य है ।
टीका - द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविध-द्विप्रकारं, प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते वीर्यं तद्दिवभेदं सुष्ठ्वाख्यातं स्वाख्यातं तीर्थकरादिभिः, वा वाक्यालङ्कारे, तत्र 'ईर गतिप्रेरण योः' विशेषेण ईरयति-प्रेरयति अहितं येन तद्वीर्यं जीवस्य शक्तिविशेष इत्यर्थः, तत्र, किं नु 'वीरस्य' सुभटस्य वीरत्यं ?, केन वा कारणेनासौ वीर इत्यभिधीयते, नुशब्दों वितर्कवाची, एकद्वितर्कयति किं तद्वीर्य ?, वीरस्य वा किं तवीरत्वमिति ॥१॥ तत्र भेदद्वारेणवीर्यस्वरूपमाचिख्यासुराह -
टीकार्थ - जिसके दो भेद होते है, उसे द्विविध कहा जाता है । इदं शब्द प्रत्यक्ष तथा आसन्न-समीपस्थ का वाचक है । अतः आगे जो प्रकर्ष के साथ-विस्तार के साथ विशद रूप में वक्ष्यमाण है, वह वीर्य दो प्रकार का है । तीर्थंकर आदि ने ऐसा सम्यक् आख्यात किया है । यहाँ 'वा' शब्द वाक्यालंकार के अर्थ में-वाक्य की शोभा हेतु प्रयुक्त हुआ है । 'ईरगति प्रेरणयोः" सूत्र के अनुसार ईर-धातुगति ओर प्रेरणा के अर्थ में है । विपूर्वक ईर धातुः से वीर्य शब्द निष्पन्न है । जो विशेष रूप से अहित को दूर करता है, वह वीर्य कहलाता है । वीर्य आत्मा की विशेष शक्ति है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सुभट-योद्धा की वीरता क्या है? तथा वह किस प्रकार वीर कहा जाता है ? इस गाथा में 'नु' शब्द वितर्क अर्थ का सूचक है । यहाँ यह वितर्कप्रश्न उपस्थित होता है कि वह वीर्य क्या है? वीर्ययुक्त पुरुष-वीर पुरुष की वीरता का क्या स्वरूप है ।
सूत्रकार भेदपूर्वक वीर्य के स्वरूप की व्याख्या करने हेतु प्रतिपादित करते हैं ।
कम्ममेगे पवेदेति, अकम्मं वावि सुव्वया । . .. एतेहिं दोहि ठाणेहिं, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥ छाया - कमैके प्रवेदयन्त्यकर्माणं वाऽपि सुव्रताः ।
आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, याम्यां दृश्यन्ते माः ॥ अनुवाद - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यों को संबोधित कर कहते हैं कि हे व्रतशील साधकों! कई कर्म को वीर्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं तथा कई अन्य अकर्म को वीर्य के नाम से अभिहित करते हैं । इस तरह उसके दो भेद हैं । इस मर्त्यलोक के सभी प्राणी इन दो भेदों के अन्तर्गत दृष्टिगोचर होते हैं ।
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