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छाया
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अनुवाद धीर-बुद्धिमान साधु सब संग - आसक्तियों का त्याग कर सब प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ ज्ञान दर्शन तथा चारित्र से युक्त होता है । वह किसी भी विषय में प्रतिबद्ध नहीं होता । वह अप्रतिबद्ध विहारी होता है । वह सभी प्राणियों को अभय देता हुआ विषयों तथा कषायों से अलिप्त-अनासक्त रहता है। यथावथ संयम का पालन करता है
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कुशील परिज्ञाध्ययनं
सर्वान् सङ्गानतीत्यधीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिलोगृद्धोऽनियतचारी, अभयङ्करो भिक्षुरनाविलात्मा ॥
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टीका सर्वान् 'सङ्गान्' संबन्धान् आन्तरान् स्नेहलक्षणान् बाह्यांश्च द्रव्यपरिग्रहलक्षणान्' 'अतीत्य ' त्यक्त्वा 'धीरो' विवेकी सर्वाणि 'दुःखानि ' शारीरमानसानि त्यक्त्वा परीषहोपसर्गजनितानि 'तितिक्षमाणः ' अधिसहन् 'अखिलो' ज्ञानदर्शनचारित्रैः सम्पूर्णः तथा कामेष्वगृद्धस्तथा ' अनियतचारी' अप्रतिबद्धविहारी तथा जीवा नामभयंकरो भिक्षणशीलो भिक्षुः- साधुः एवम् 'अनाविलो' विषयकषायैरनाकुल आत्मा यस्यासावनाविलात्मा 'संयममनुवर्त्तत इति ॥ २८ ॥ किञ्चान्यत्
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टीकार्थ - संबंध दो प्रकार के है- आन्तर संबंध तथा बाह्य सम्बन्ध । स्नेह आन्तरिक संबंध है, तथा द्रव्य परिग्रह बाह्य संबंध है । इन दोनों का परित्याग कर धीर - प्रज्ञा सम्पन्न विवेकी पुरुष दैहिक और मानसिक दुःखों का त्याग कर तथा परीषह और उपसर्गों से जनित दुःखों को सहन करता हुआ, ज्ञानदर्शन एवं चरित्र से सम्पूर्ण सम्पन्न होता है। वह कामवासना में अगृद्ध- अलोलुप, अनासक्त रहता हुआ अप्रतिबद्ध विहारी होता है । वह समग्र जीवों को अभयदान देता हुआ विषयों एवं कषायों से अलिप्त अनाकुल रहता है । यथाविधि - सम्यक् संयम का परिपालन करता है ।
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भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा, कंखेज्ज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुट्ठे धुयमाइएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा ॥ २९॥
छाया भारस्य यात्रायै मुनिर्भुञ्जीव, काङ्क्षेत् पापस्य विवेकं भिक्षुः । दुःखेन स्पृष्टो धूतमाददीत, सङ्ग्रामशीर्ष इव परं दमयेत् ॥
अनुवाद - मुनि भार यात्रा - संयम यात्रा के निर्वाह हेतु भोजन ग्रहण करे तथा अपने पूर्वाचरित पापों का अपनयन करने की इच्छा रखे। जब उस पर परीषहों और उपसर्गों का दुःख आये तो वह संयम में ध्यानावस्थित हो - एकमात्र उस ओर ही ध्यान रखे। जैसे समर भूमि में योद्धा शत्रुओं का दमन करता है, वह उसी तरह कर्म रूपी शत्रुओं का दमन- ध्वंस करे ।
टीका - संयमभारस्य यात्रार्थं - पञ्च महाव्रत भारनिर्वाहणार्थं 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता 'भुञ्जीत' आहारग्रहणं कुर्वीत, तथा 'पापस्य' कर्मणः पूर्वाचरितस्य 'विवेकं' पृथग्भावं विनाशमाकाङ्क्षेत् ‘भिक्षुः' साधुरिति, तथादुःखयतीति दुःखं परीषहोपसर्गजनिता पीड़ा तेन 'स्पृष्टो' व्याप्तः सन् ' धूतं ' संयमं मोक्षं वा 'आददीत ' गृह्णीयात्, यथा सुभटः कश्चित् सङ्ग्रामशिरसि शत्रुभिरभिद्रुतः परं' शत्रुं दमयति एवं परं कर्मशत्रुं परीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि दमयेदिति ॥ २९ ॥ अपिच
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टीकार्थ - वर्तमान, भूत एवं भविष्य तीनों कालों का वेत्ता मुनि, पंच महाव्रत रूप भार के निर्वाह हेतु आहार का ग्रहण करे, तथा अपने पूर्वाचरित पाप कर्म के विनाश की आकांक्षा- अभिलाषा रखे । जो दुःख देता . है, पीड़ित करता है, उसे दुःख कहा जाता है । वह परीषहों एवं उपसर्गों से पैदा होता हैं । जब साधु उससे
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