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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् उत्पीड़ित हो तो वह संयम या मोक्ष में अपना ध्यान जोड़े रखे । कोई वीर योद्धा संग्राम भूमि में प्रतिपक्षी के वीरों-सैनिकों द्वारा पीड़ित किया जाता हुआ उन शत्रु सैनिकों का दमन कर डालता है, उन्हें ध्वस्त कर देता है, उसी प्रकार साधु परीषहों, एवं उपसर्गों से आक्रान्त, पीडित होता हुआ भी कर्मरूपी शत्रु का दमन-विनाश करे।
अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी, समागमं कंखति अंतकस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं तिबेमि ॥३०॥ छाया - अपि हन्यमानः फलकावतष्टी, समागमं काङ्क्षत्यन्तकस्य ।
निर्धूय कर्म न प्रपञ्चमुपैति, अक्षक्षय इव शकटमिति ब्रवीमि ॥ . अनुवाद - परीषहों तथा उपसर्गों द्वारा हन्यमान-पीड़ित, प्रतिहत होता हुआ भी दोनों ओर से छीले जाते हुए काष्ठफलक-काठ के फाटके की ज्यों कष्ट पाता हुआ भी साधु राग द्वेष न करे, मरण की प्रतीक्षा करे । इस तरह अपना कर्मक्षय कर वह संसार को प्राप्त नहीं करता-भवचक्र में नहीं भटकता, जैसे धूरी के टूट जाने से गाड़ी नहीं चलती ।
टीका - परीषहोपसगैर्हन्यमानोऽपि-पीड्यमानोऽपि सम्यक् सहते, किमिव ? फलकवदवकृष्टः यथाफलकमुभाभ्यामपि पार्वाभ्यां तष्टं-घट्टितं सत्तनु भवति अरक्तद्विष्टं वा संभवत्येवमसावपि साधुः स बाह्याभ्यन्तरेण तपसा निष्टप्तदेहस्तनुः-दुर्बलशरीरोऽरक्त द्विष्टश्च, अन्तकस्य-मृत्योः 'समागम' प्राप्तिम् 'आकाङ्क्षति' अभिलषति, एवं चाष्टप्रकारं कर्म 'निर्धूय' अपनीय न पुनः 'प्रपञ्चं' जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपञ्च्यन्ते बहुधा नटवद्यस्मिन् स प्रपञ्चः-संसारस्तं 'नौपैति' न याति, दृष्टान्तमाह-यथा अक्षस्य 'क्षये' विनाशे सति 'शकटं' गन्त्र्यादिकं समविषमपथरूपंप्रपञ्चमुपष्टम्भकारणाभावान्नोपयाति,एवमसावपिसाधुरष्टप्रकारस्य कर्मण:संसारप्रपञ्चंनोपयातीति, गतोऽनुगमो नयाः पूर्ववद् इति शब्दः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३०॥ समाप्तं च कुशीलपरिभाषाख्यं सप्तममध्ययनं ॥
टीकार्थ - साधु परीषहों और उपसर्गों द्वारा हन्यमान-पीड्यमान होता हुआ भी कष्ट को सम्यक् सहन करता है, किस प्रकार ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं, जैसे काष्टफलक-काठ का फाटका दोनों ओर से छीला जाता हुआ भी, पतला किया जाता हुआ भी राग द्वेष नहीं करता, उसी प्रकार साधु बाह्य और आभ्यन्तर तपश्चरण द्वारा देह के परितप्त और दुर्बल होने पर भी राग द्वेष नहीं करता किन्तु मृत्यु के आने की प्रतीक्षा करता है । वह साधु इस प्रकार अष्टविध कर्मों को अपनीत कर-दूरकर फिर जन्म, वृद्धत्व, मृत्यु, रोग तथा शोक आदि अनेक प्रकार के प्रपञ्च युक्त नट के सदृश इस संसार को प्राप्त न इस संबंध में दृष्टान्त उपस्थित किया जाता है-जैसे अक्ष-धुरी के भग्न हो जाने पर गाड़ी सम-समान, विषमअसमान मार्ग में आधार रहित होने के कारण नहीं चलती। इसी तरह वह साधु अष्ट विध कर्मों के क्षीण हो जाने से संसार प्रपञ्च नहीं करता-संसार के झंझट में, गोरखधन्धे में नहीं पड़ता।
___अनुगम समाप्त हुआ, नय पूर्ववत है, इति शब्द समाप्ति के अर्थ में प्रयुक्त है । ब्रवीमि बोलता हूँ, पूर्ववत् योजनीय है ।
॥ कुशील परिभाषा नामक सप्तम अध्ययन समाप्त हुआ ॥
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