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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
‘कामै:' इच्छामदनरूपैः सर्वेभ्यो वा कामेभ्यो गृद्धिं 'विनीय' अपनीय संयममनुपालयेदिति, सर्वथा मनोज्ञेतरेषु विषयेषु रागद्वेषं न कुर्यात् तथा चोक्तम
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“सद्देसु य भद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुट्ठेण व, समणेण सया ण होयव्वं ॥१॥ छाया - शब्देषु च भद्रकापापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यं ॥१॥ रुवेसु य भद्दयपावएसु, चक्खुविसय मुवगएसु । तुट्टेण व रुट्ठेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥२॥ गंधे य भद्दयपावसु, घाणविसय मुव गएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वे ॥३॥ भक्खेसु य भद्दयपावसु, रसणविसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥४॥ फासेसु य भद्दयपावएसु, फासविसयमुवगएसु । तुट्ठेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥५॥" ॥२७॥ यथा चेन्द्रियनिरोधो विधेय एवमपरसङ्गनिरोधोऽपि कार्य इति दर्शयति
टीकार्थ अज्ञात-जो नहीं जाना हुआ हो, वैसा पिण्ड अन्न पानी या आहार अर्थात् जिसके साथ : पूर्ववर्ती और पश्चातवर्ती परिचय नहीं जुड़ा हुआ हो वह आहार अज्ञात पिण्ड है । उसके द्वारा साधु को अपना जीवन चलाना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि अन्तप्रान्त यत्किंचित आहार प्राप्त हो या न हो साधु को दीनता का अनुभव नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार उत्तम आहार प्राप्त होने पर उसे मद-अभिमान नहीं करना चाहिए। उसे तपश्चरण कर सत्कार, सम्मान की अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए अर्थात् वह तदर्थ तपश्चरण न करे । पूजा सत्कार हेतु अथवा तथाविध अन्य प्रकार की किसी अभिलाषा के निमित्त, साधु को मुक्ति हेतु --मोक्ष के कारण, भूत तपश्चरण को नि:सार-सारहीन या व्यर्थ नहीं करना चाहिए। कहा है- परलोक में परम उत्तम स्थान प्राप्त कराने वाले तप एवं श्रुत ये ही दो हैं । इनके द्वारा सांसारिक पदार्थों की कामना करने पर यह तृणलव-तृण के टुकड़े की ज्यों नि:सार-सारहीन हो जाते हैं । साधु रस में- आस्वाद में गृद्धि-लोलुपता या आसक्ति न रखे। इसी प्रकार शब्द आदि विषयों में भी आसक्ति न रखे । सूत्रकार यह व्यक्त करते हैं । वेणु - बांसुरी तथा वीणा आदि के शब्द सुनकर साधु उनमें संसक्त न हो तथा कर्कश कठोर, अप्रिय वचन सुनकर वह द्वेष न करे । इसी प्रकार वह सुन्दर व असुन्दर रूप में राग तथा द्वेष भाव न रखे । वह समग्र कामभोग में आसक्ति छोड़कर संयम का अनुपालन करे । वह सुन्दर तथा असुन्दर विषयों से राग तथा द्वेष न करे, कहा है।
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शब्द भद्र-सुन्दर या पापक- असुन्दर या खराब जैसा भी कान में पड़े तो साधु उससे प्रसन्नता या अप्रसन्नता का अनुभव न करे । सुन्दर या असुन्दर जो भी रूप नैत्रों के सामने आये तो वह उससे प्रसन्न या अप्रसन्न न हो । गन्धं उत्तम-सुगंध, अधम-दुर्गन्ध जैसे भी रूप में घ्राणेन्द्रिय में आये तो साधु उससे तुष्ट या अतुष्ट न ही । भोजन स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट मुख के सामने आये तो साधु परितोष या अपरितोष अनुभव न करे। स्पर्श प्रिय या अप्रिय जैसा भी देह का प्राप्त हो, साधु उससे तुष्टि या अतुष्टि की अनुभूति न करे ।
. जिस प्रकार इन्द्रियों का निरोध किया जाना चाहिए, उसी प्रकार अन्य आसक्तियों का भी निरोध किया जाना चाहिए, इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं ।
ॐ ॐ ॐ
सव्वाई संगाई अइच्च धीरे, सव्वई दुक्खाइं तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे जणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खुअणाविलप्पा ॥ २८ ॥
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