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कुशील परिज्ञाध्ययनं
दातारमनुसेवमान आहारमात्रगृद्धः सर्वमेतत्करोतीत्यर्थः, स चैवम्भूतः सदाचारभ्रष्टः पार्श्वस्थभावमेव व्रजति कुशीलतां च गच्छति, तथा निर्गतः - अपगतः सार:- चारित्रोख्यो यस्य स निःसारः, यदिवा - निर्गतः सारो निःसारः स विद्यते यस्यासौ निःसारवान्, पुलाक इव निष्कणो भवति यथा एवमसौ संयमानुष्ठानं निःसारीकरोति, एवंभूतश्चासौ लिङ्गमात्रावशेषो बहूनां स्वयूथ्यानां तिरस्कारतदवीमवाप्नोति, परलोके च निकृष्टानि यातनास्थानान्यवाप्नोति ॥२६॥ उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षभूतान् सुशीलान् प्रतिपादयितुमाह
टीकार्थ - जो पुरुष भोज्य, पेय पदार्थ, वस्त्र आदि सांसारिक पदार्थों को पाने हेतु अनुप्रिय - सम्मुखिन पुरुष को प्रिय लगे, उसके लिए प्रीतिकर हो, ऐसा भाषण करता है. वह कुशील है। जैसे राजा का सेवक अथवा उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला खुशामदी मनुष्य राजा के वचन के पीछे-पीछे बोलता है, उसी तरह वह कुशील दाता को खुश करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाता है । वह आहार मात्र में गृद्ध खाद्यलोलुप होता हुआ यह सब करता है, जो पुरुष सत् आचार से भ्रष्ट पतित है । वह पार्श्वस्थभाव को प्राप्त होता है। तथा कुशीलता को पाता है । वह पुरुष चारित्र रूप सार से विरहित होने के कारण निस्सार-सारहीन है । जैसे अन्न के दाने निकाल लिए जाने पर भूसा निस्सार हो जाता है, उसी तरह वह पुरुष संयम रूप सार के अपगत हो जाने से निस्सार है । उसने केवल साधु का बाना धारण कर रखा है, संयम से रहित है । अतः वह स्वयूथ्यअपने यूथ या समुदाय साधुओं के तिरस्कार या अपमान का भाजन होता है । वह परलोक में निकृष्टअत्यन्त निम्न यातना स्थान प्राप्त करता है ।
कुशीलों का वर्णन किया जा चुका है। अब उनके प्रतिपक्ष भूत- उनके प्रतिपक्षी सुशीलों-उत्तम आचार शील पुरुषों का वर्णन करते हुए कहते हैं ।
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अण्णात पिंडेणऽहियासएज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेजा । सद्देहिं रूवेहिं असज्जमाणं, सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं ॥२७॥
छाया अज्ञात पिण्डेनाधिसहेत्, न पूजनं तपसाऽऽवहेत् ।
शब्दैः रूपै रसजन्, सर्वेभ्यः कामेभ्यो विनीय गृद्धिम् ॥
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अनुवाद साधु को अज्ञात आहार का - जिसके संबंध में पहले से ज्ञान नहीं है, जो औदेशिक आदि दोष से विवर्जित है, उस द्वारा अपना निर्वाह करना चाहिए। तपश्चरण द्वारा पूजा एवं सत्कार की कामना नहीं करनी चाहिए । उसे शब्द, रूप आदि सब प्रकार सांसारिक भोगों से पृथक् होते हुए शुद्ध संयम का परिपालन करना चाहिए ।
टीका अज्ञातश्चसौ पिण्डश्चातपिण्डः अन्तप्रान्तः इत्यर्थः, अज्ञातेभ्यो वा पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातपिण्डोऽज्ञातोञ्छवृत्त्या लब्धस्तेनात्मानम् 'अधिसहेत्' वर्तयेत् पालयेत् एतदुक्तं भवति - अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न दैत्यं कुर्यात्, नाप्युत्कृष्टेन लब्धेन मदं विदध्यात् नापि तपसा पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः, यदि वा पूजासत्कारनिमित्तत्वेन तथाविद्यार्थित्वेन वा महतापि केनचित्तपो मुक्तिहेतुकं न निः सारं कुर्यात्, तदुक्तम्
" परं लोकाधिकं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थित्वनिर्लुप्तसारं तृणलवायते ॥१॥
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यथा च रसेषु गृद्धिं न कुर्यात्, एवं शब्दादिष्वपीति दर्शयति- " शब्दैः ' वेणुवीणादिभिराक्षिप्तः संस्तेषु 'असजन्' आसक्तिमकुर्वन् कर्कशेषु न द्वेषमगच्छत् तथा रूपैरपि मनोज्ञेतरै रागद्वेषमकुर्वन् एवं सर्वैरपि
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