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। कुशील परिज्ञाध्ययनं ___टीकार्थ - अग्निकाय का समारंभ करने वाले तापस एवं पाक-भोजन पकाने एवं पकवाने आदि से अनिवृत बौद्ध आदि परमतवादियों के सिद्धान्तों का निराकरण किया जा चुका है । अब उन अन्य मतवादियों के जो वनस्पति काय के समारंभ से निवृत्त नहीं है, सिद्धान्तों को परामृष्ट किया जाता है-समीक्षापूर्वक उनका वर्णन किया जाता है ।
दूब तथा अंकुर, हरे पदार्थ भी जीव है क्योंकि ये देखा जाता है कि आहार आदि द्वारा ये बढ़ते हैं, जीव की आकृति धारण करते हैं । कलल, अबूंद, मांसपेशी, गर्भ, प्रसव, बाल कुमार, तरुण, मध्यस्थ तथा वृद्ध आदि मनुष्य की अवस्थाऐ होती है । इसी प्रकार हरे शाली-चांवल आदि भी जात-उत्पन्न, अभिनवनूतन, संजातरसा-उत्पन्न रसयुक्त युवा-परिपक्व, जीर्ण-परिशुष्क एवं मृत आदि दशाओं को धारण करते हैं । वृक्ष भी जब अंकुरित होते हैं तब ये उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार कहा जाता है । फिर जब वे मूल, स्कन्ध, शाखा-डाली, प्रशाखा-टहनी, आदि के रूप में परिवर्द्धित होने लगते हैं, तब वे युवा अथवा पोध कहे जाते हैं । उसी प्रकार उनकी शेष अवस्थाए भी आयोजित कर लेनी चाहिए । जान लेनी चाहिए यों हरी दूब आदि भी जीवाकृति में परिणित होते हैं । वृक्षों के मूल, स्कन्ध, शाखा-पत्र, पुष्प आदि सभी स्थानों में जीव पृथक्पृथक् रहते हैं । मूल से लेकर पत्र पर्यन्त सम्पूर्ण वृक्ष में एक ही जीव नहीं है किन्तु अनेक जीव हैं । वनस्पतिकाय में निवास करने वाले ये जीव संख्येय, असंख्येय तथा अनन्त इन तीन प्रकार के होते हैं । जो इन जीवों का
आहार-खाने पीने के आदि निमित्त, शरीर की वृद्धि हेतु या शरीर में लगे घाव को मिटाने के लिए या अपने किसी भी सुख के लिए छेदन करता है या काटता है, वह धृष्टता-उद्धतता के साथ बहुत जीवों का विध्वंस करता है । निर्दयतापूर्वक इनका नाश करने से न तो धर्म ही होता है और न आत्म सुख ही ।
जातिं च वुद्धिं च विणासयंते, बीयाइ अस्संज्ञय आयदंडे । अहाहु से लोएँ अणजधम्मे, बीयाइ जे हिंसति आयसाते ॥९॥ छाया - जातिञ्च, वृद्धिञ्च विनाशयन् बीजान्यसंयत आत्मदण्डः ।
अथाहुः स लोके अनार्यधर्मा, बीजानि यो हिनस्त्यात्मसाते ॥ अनुवाद - जो पुरुष अपनी सुख सुविधा हेतु बीजों का-विविध अन्नों का विध्वंस करता है, वह बीज द्वारा होने वाले अंकुर, शाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि की वृद्धि का भी ध्वंस करता है । वास्तव में वह पुरुष पाप द्वारा अपनी आत्मा को दण्ड योग्य बनाता है । तीर्थंकरों ने ऐसे पुरुष को अनार्य धर्मा बतलाया है।
टीका - 'जातिम्' उत्पतिं तथा अङ्करपत्रमूलस्कन्धशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धिं च विनाशयन् बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि छिनत्तीति, असंयत: गृहस्थ : प्रव्रजितो वा तत्कर्मकारी गृहस्थ एव स च हरितच्छेदविधाय्यात्मानं दण्डयतीत्यात्मदण्डः स हि परमार्थतः परोपघातेनात्मानमेवोपहन्ति, अथ शब्दो वाक्यालङ्कारे 'आहुः' एवमुक्तवन्तः, किमुक्तवन्त इति दर्शयति-यो हरितादिच्छेदको निरनुक्रोशः 'सः' अस्मिन् लोके 'अनार्यधर्माः' क्रूरकर्मकारी भवतीत्यर्थः, स च क एवम्भूतो यो धर्मापदेशेनात्मसुखार्थं वा बीजानि अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् वनस्पतिकायं हिनस्ति स पाषण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति सम्बन्धः।।९।।साम्प्रतं हतिच्छेदकर्मपिपाकमाह
टीकार्थ - जो पुरुष हरी वनस्पति का छेदन करता है-उसे काटता छाँगता है, वह उस द्वारा होने वाली अन्य वनस्पति की उत्पत्ति, अंकुर, पत्र, मूल, स्कन्ध, शाखा तथा प्रशाखा भेद से उसके संवर्द्धन का नाश
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