________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् स्नानाभ्यङ्गोद्वर्तनादिषु क्रियासु निष्प्रतिकर्मशरीरतयाऽन्यासु च चिकित्सादिक्रियासु न वर्तने, तथा स्त्रीषु च विरतः वस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रवा गृह्यन्ते, यश्चैवम्भूतः सर्वेभ्योऽप्याश्रवद्वारेभ्यो विरतो नासौ कुशीलदोषैर्युज्यते तदयोगाच्च न संसारे बम्भ्रमीति, ततश्च न दुःखितः स्तनति नापि नानाविधैरपायैर्विलुप्यत इति ॥२२॥ पुनरपिकुशीलानेवाधिकृत्याह -
____टीकार्थ - जो पुरुष धीर-बुद्धि से राजित-शोभित होता है उसे धीर कहा जाता है । धीर का तात्पर्य बुद्धिमान से है । वैसा पुरुष जल के आरम्भ-हिंसा से कर्म बंधते हैं, यह जानकर क्या करे ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार प्रतिपादित करते हैं कि वह प्रासुक-अचित जल से अपना प्राण धारण करें-जीवन निर्वाह करें । यहाँ जो 'च' शब्द का प्रयोग हुआ है उससे यह सूचित है कि वह प्रासुक आहर से ही अपने प्राणों की रक्षा करे। संसार को आदि कहा जाता है । उससे मुक्त होना, छूटना आदि मोक्ष कहलाता है । वह जब तक प्राप्त न हो जाये तब तक साधु प्रासुक पदार्थों से जीवन निर्वाह करें। अथवा धर्म के कारण भूत इस देह का जब तक मोक्ष-समापन न हो जाये अर्थात् जीवनपर्यन्त साधु प्रासुक पदार्थों के द्वारा ही अपना निर्वाह करे । वह बीज एवं कन्द आदि का भी सेवन न करे । यहाँ आदि शब्द से मूल, फल निहित है । जो मूल पत्र एवं फल प्रासुक नहीं हैं उनका भी विरत-संयमी पुरुष परित्याग कर देते हैं । वे ऐसा किसलिए कर देते हैं ? सूत्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि संयत पुरुष स्नान, शरीर के अंगों पर तेल मालिश, पिट्टी आदि का लेपन आदि क्रियाओं से पृथक् रहते हैं । शरीर की सज्जा नहीं करते । चिकित्सा आदि क्रियाओं द्वारा भी इसकी पूर्ति नहीं करते अब्रह्मचर्य-नारी भोग से निवृत रहते हैं । यहाँ वस्त्र निरोध से दूसरे आश्रव भी निहित होते हैं । जो पुरुष यों अपना जीवन व्यवतीत करता है, वह समस्त आश्रवों से निवृत्त है । वह कुशील-कुत्सित आचरण के दोषों से लिप्त नहीं होता । उनसे लिप्त न होने के कारण वह पुनः पुनः इस संसार में भ्रमण नहीं करता-भटकता नहीं, अतएव वह दुःखित होकर रोता नहीं तथा नाना प्रकार के दुःखों से उत्पिड़ित नहीं होता ।
पुनः कुशीलों को उद्दिष्ट कर कहते हैं ।
जे मायरं च पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुं धणं च । कुलाई जे घावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ॥२३॥ छाया - यो मातरञ्च पित्तरञ्च हित्वाऽगारं तथा पुत्रपशून् धनञ्च ।
. कुलानि यो धावति स्वादुकानि, अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥ ___ अनुवाद - जो पुरुष माता-पिता, गृह, पुत्र, पशु-गाय, भैंस, अश्व आदि पशु धन, धन-वैभव, सम्पत्ति का त्यागकर दीक्षा ग्रहण करता है किन्तु वैसा करके भी स्वादिष्ट भोजन की लोलुपता वश वैसे घरों में जहाँ सुस्वादं भोजन मिलना सम्भावित हो दौड़ता हुआ जाता है । वह श्रामण्य-साधुत्त्व से दूरवर्ती है, तीर्थंकरों ने ऐसा कहा है।
टीका - ये केचनापरिणतसम्यग्धर्माणस्त्यक्त्वा मातरं च पितरं च, मातापित्रोद॑स्त्यजत्वादुपादानं, अतो भ्रातृदुहित्रादिकमपित्यकत्वेत्येतदपि द्रष्टव्यं, तथा 'अगारं' गृहं 'पुत्रम्' अपत्यं 'पशुं' हस्त्यश्वरथगोमहिष्यादिकं धनं च त्यक्त्वा सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय-पञ्चमहाव्रतभारस्य स्कन्धं दत्त्वा पुनींनसत्त्वतया रससातादिगौरवगृद्धो यः 'कुलानि' गृहाणि 'स्वादुकानि' स्वादुभोजनवन्ति 'धावति' गच्छति, अथासौ 'श्रामण्यस्य' श्रमणभावस्य दूरे वर्तते एवमाहुस्तीर्थंकरगणधरादय इति ॥२३॥ एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाह -(ग्रन्थाम्रम् ४७५०)
386